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दानाधिकारः।
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(प्रेरक)
श्रावकको अव्रतकी क्रिया नहीं लगती यह मुझको ज्ञात हुआ परन्तु श्रावकको साता उत्पन्न करनेसे धर्म या पुण्य होता है इसमें क्या प्रमाण है ? (प्ररूपक)
श्रावकको साता उत्पन्न करनेसे धर्म और पुण्यकी उत्पत्ति होना भगवती सूत्र शतक ३ उद्देशा १ के मूल पाठसे सिद्ध होता है वह पाठ अर्थके साथ लिखा जाता
"सणं कुमारे देविन्दे देवराया बहुणं समणाणं वहुणं समणीणं वहुणं सावयाणं वहुणं सावियाणं हिय कामए मुह कामए पत्थकामए अनुकम्पिए निस्सेयसिए हिय सुह निस्सेयम कामए सेते ण?णं गोयमा सणं कुमारे भवसिद्धिए णो अचरिमे"
(भगवती शतक ३ उ०१) अर्थ :- .
हे गोतम ! सनत्कुमार देवेन्द्र बहुतसे साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओंके हित, मुख, पथ्य, अनुकम्पा और मोक्षकी कामना करते हैं इस लिये वह भवसिद्धिसे लेकर यावत् चरम हैं।
इस पाठमें साधु साध्वीकी तरह श्रावक और श्राविकाओंका भो हित, सुख, पथ्य, अनुकम्पा ओर मोक्षकी कामना करनेसे सनत्कुमार देवेन्द्रको भवसिद्धिसे लेकर यावत् चरम होना कहा है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रावक और श्राविकाको साता उत्पन्न करनेसे धर्म और पुण्य की प्राप्ति होती है। श्रावक और श्राविकाओंके हित, सुख और पथ्यकी कामना मात्र करनेसे जब कि सनत्कुमार देवेन्द्रको इतना बड़ा उत्तम फल प्राप्त हुआ है तब फिर साक्षात् हित सुख और पथ्य करनेसे तो कहना ही क्या है । अतः जो लोग श्रावको सुख साधक वस्तुका प्रदान करके धर्ममें सहायता देते हैं वे धर्मका कार्य करते हैं एकान्त पापका नहीं इस लिये श्रावकको सुखसाधक वस्तुका प्रदान करके उनको साता उत्पन्न करनेसे जो एकान्त पाप और अबतका सेवन कराना बतलाते हैं वे मिथ्यावादी हैं।
___ उक्त मूल पाठमें आये हुए हित, सुख और पथ्य शब्दोंका अर्थ, टीकाकारने इस प्रकार किया है :
____ “हितं सुख निवन्धनं वस्तु" "सुह कामए" त्ति सुखं शम" . "पत्थ कामए" त्ति पथ्यं दुःख त्राणं" कस्मादेव मित्यत आह "अनुकम्पिए"तिरूपावान्।
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