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दानाधिकारः।
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(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ९२ के ऊपर सुयगडांग और उवाई सूत्रका मूल पाठ लिख कर उनकी समालोचना करते हुए लिखते हैं :
“अथ अठे आवकरा ब्रत अव्रत जूदा जूदा कया मोटा जीव हणवारा मोटा झूठरा मोटो चोरी मिथुन परिग्रहरी उपरान्त मर्यादा कीधी ते तो प्रत कही अने पांच स्थावर हणवारो आगार छोटो झूठ छोटी चोरी मिथुन परिप्रहरी मर्यादा कीधी ते माहिला सेवन सेवा वन रो आगार ते अव्रत कही" इत्यादि इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक)
सुय गडांग सूत्र और उवाई सूत्र का नाम लेकर श्रावकको अबतकी क्रिया बताना मिथ्या है । उक्त सूत्रमें कहा है कि-"श्रावक अठारह पापोंसे अंशतः हटा है और अंशतः नहीं हटा है।" जिस अंशसे नहीं हटा है वह उसका अव्रत है ऐसा नहीं लिखा है अतः उक्त सूत्रोंकी सहायतासे श्रावकको अव्रत की क्रिया बताना अज्ञान है। - यदि कोई कहे कि श्रावक जिस अंशसे हटा है वह जब कि उसके व्रतमें है तब जिससे वह नहीं हटा है वह अवतमें क्यों नहीं है ? तो उससे कहना चाहिये कि सुय गडांग सूत्र और उवाई सूत्रके मूल पाठमें श्रावकको अठारह पापोंसे अंशतः हटना और अंशत: नहीं हटना कहा है इस लिये श्रावक मिथ्यादर्शन शल्यसे भी अंशतः हटा है और अंशतः नहीं हटा है। जिस अंशसे श्रावक नहीं हटा है उसके हिसाबसे श्रावकको मिथ्या दर्शनकी क्रिया क्यों नहीं लगती है ? यदि कहो कि श्रावक मिथ्यादर्शन शल्य रूप पाप से यद्यपि सर्वथा नहीं हटा है तथापि सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेसे उसे मिथ्यादर्शनकी क्रिया नहीं लगती तो उसी तरह समझो कि १७ पापोंके जिस जिस अंश श्रावक नहीं हटा है उसके सेवन करने पर भी प्रत्याख्यान होनेसे श्रावकको अप्रत्याख्यानकी क्रिया नहीं लगती । भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा २ में स्पष्ट लिखा है कि श्रावकको आरम्भिकी पारिग्रहिकी और माया प्रत्यया ये तीन ही क्रियायें लगती हैं अप्रत्याख्यानकी और मिथ्यादर्शनकी क्रिया नहीं लगती। वह पाठ यह है :
"तत्यणं जेते संजया संजया तेसिणं आदि आओ तीणि किरि आओ कज्जति"
(भ० श०१ उ०२) अर्थात् संयता संयत (श्रावक) को आदिकी तीन क्रियाएं लगती हैं शेष अप्रत्याख्यानकी और मिथ्यादर्शनकी क्रिया नहीं लगती। अत: श्रावकको अवतकी क्रिया
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