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दानाधिकारः ।
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अर्थात् हे भगवन् ! यह पुरुष, पूर्व जन्ममें कौन था इसका क्या नाम था और गोत्र क्या था किस ग्राम या नगरमें यह रहता था। क्या देकर, क्या खाकर, क्या आचरण करके और प्रायश्चित्तसे नहीं हटाए हुए किस निन्दित पुराने अशुभ कर्मके पाप स्वरूप फल विशेषको यह भोग रहा है ?
इस पाठ में जैसे " किंवा भोचा " और "किंवा समायरित्ता" ये दो पाठ अभक्ष्य मांसादि भक्षण और हिंसादि आचरण अर्थमें आये हैं, दाल रोटी आदिका भोजन और न्याय वृत्तिसे कुटुम्ब पालनादिके अर्थ में नहीं उसी तरह “किंवा दच्चा " यह पाठ भी चोर जर हिंसक आदिको चोरी जारी हिंसा आदिके लिए दान देने अर्थमें ही आया है अनुकम्पा लाकर होन दीन जीवोंको दान देने अथमें नहीं इसलिए इस पाठके आश्रय से 'अनुकम्पादानका खण्डन करना अज्ञान है । यदि कोई “किंवा दच्चा इस पाठसे अनुकम्पादानका ग्रहण करके अनुकम्पा दानमें भी पाप बतावे तो फिर वह " किंवा दवा " इस पदसे साधु दानका ग्रहण करके उसे भी पाप क्यों नहीं बतलाता ?
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यदि कहो कि पञ्च महाव्रतधारी साधुको दान देनेसे एकान्त पाप नहीं होता इस लिए उसका इस पाठमें ग्रहण नहीं है तो हीन दीन जीवोंपर दया लाकर दान देने से भी एकान्त पाप नहीं होता इसलिए उसका भी इस पाठमें ग्रहण नहीं है किन्तु जैसे पञ्च महाव्रतधारीको मोक्षार्थ दान देना प्रशस्त है उसी तरह हीन
दीन जीवोंपर दया
लाकर दान देना भी कनुकम्पा रूप गुणका हेतु है अतः अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप
कहना मूर्खता है ।
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coatarरने "किंवा दच्चा इस पाठका कुपात्र दान अर्थ किया है कुपात्र दानका अर्थ, चोर जार हिंसक आदिको चोरी जारी हिंसा आदिके लिये दान देना है अनुकम्पा लाकर हीन दीनको दान देना नहीं क्योंकि चोर जार हिंसक आदि जीव ही कुपात्र हैं।
भ्रमविध्वंसनकारकी कपोल कल्पित परिभाषानुसार साधुसे इतर सभी कुपात्र नहीं हैं इसलिए उक्त टव्वाकार अर्थानुसार भी हीनदीन जीवों को अनुकम्पा दान देनेसे एकान्त पाप नहीं सिद्ध होता अतः उक्त टव्वा अर्थका आश्रय लेकर भी अनुकम्पा दानमें पाप बताना मिथ्या है।
विपाक सूत्रका यह पाठ जो अभी लिखा गया है भ्रमविध्वंसनकी पुरानी प्रतिमें अपूर्ण छपा हुआ है उसमें “ किंवा भोच्चा किंवा समायरित्ता " यह पाठ ही नहीं है और ईश्वरचन्द चोपडाकी छपाई हुई नयी प्रतिमें भी यह पाठ व्युत्क्र से लिखा है । विपाक सूत्रकी शुद्ध प्रतियों में सर्वत्र "किंवा दच्चा किंवा भोचा किंवा समायरित्ता " ये पाठ साथ
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