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दानाधिकारः ।
" अण्णवरस्सवि पमत्त संजयस्स " इति अत्रापि शब्दो भिन्न क्रमः प्रमत्त संयतस्याप्य न्यतरस्य एक तरस्य कस्यचित् प्रमादे सति काय दुष्प्रयोग भावतः पृथि व्यादेरुपमद्द संभवात् । अपि शब्दोऽन्येषा मधस्तन गुण स्थान वर्तिनां नियम प्रदर्शनार्थः । प्रमत्त संयतस्या प्यार भिकी क्रिया भवति किं पुनः शेषाणां देश विरति प्रभृतीनामिति एवं यथा योग मपि शब्द भावना कर्त्तव्या । पारिप्रहिकी संयतासंयतस्यापि देश विरतस्या पीत्यर्थः तस्यापि परिग्रह धारणात् माया प्रत्यया अप्रमत्त संयतस्यापि कथमितिचे दुच्यतेप्रवचनोड्डाह प्रच्छादनार्थं वल्लीकरणसमुद्द ेशा दिषु । अप्रत्याख्यान क्रिया अन्यतरस्याप्य प्रत्याख्यानिनः अन्यतरदपि न किञ्चिदित्यर्थः योन प्रत्याख्याति तस्येत्यर्थ : मिथ्यादर्शन क्रिया, अन्यतरस्यापि सूत्रोक्तमेकमक्षरमप्यरोचयमानस्येत्यर्थः मिथ्या
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अर्थः
पृथ्वी आदि काय प्राणियोंको सन्ताप देने का नाम " आरम्भ " है । कहा भी हैप्राणियों को सन्ताप देनेके लिए सङ्कल्प करनेका नाम 'सरम्भ' है और उनको परिताप देता " समारम्भ" कहलता है और प्राणियोंको उपद्रव पहुंचाना "आरम्भ" है उस आरंभ के लिये जो क्रिया की जाती है उसे आरम्भिकी क्रिया कहते हैं
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( पारिप्रहिकी )
धर्मोपकरणसे भिन्न वस्तुको अङ्गीकार करना, और रखना परिग्रह कहलता है । उसीको पारिग्रहिकी क्रिया कहते हैं हुई क्रियाको “पी क्रिया " कहते हैं ।
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धर्मके उपकरणोंमें मूर्च्छा अथवा परिग्रहसे उत्पन्न
( माया प्रत्याया )
माया नाम कुटिलताका है यहां माया शब्दको उपलक्षण मान कर उससे क्रोधादि भी लिए जाते हैं इसलिये जो क्रिया माया आदिसे की जाती है उसे माया प्रत्यया क्रिया कहते हैं 1.
( अप्रत्याख्यान क्रिया ) विरतिका परिणाम थोड़ा भी न होना "अप्रत्याख्यान" कहलाता है उसीको 'अप्रत्याख्यान क्रिया' कहते हैं
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( मिथ्यादर्शन प्रत्यया ) मिथ्यादर्शनके कारण जो क्रिया की जाती है उसे "मिथ्यादर्शन प्रत्यया" कहते हैं । इनमें से कौनसी क्रिया किसको लगती है यह बतलाया जाता है:(प्रश्न) हे भगवन् ! आरम्भिकी क्रिया किसको लगती है ?
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