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सद्धर्ममण्डनम् ।
(उत्तर) हे गोतम ! किसी किसी प्रमत्त संयत पुरुषको भी आरम्भिकी क्रिया लगती है प्रमत्त संयत पुरुष जब कभी प्रमादवश अपने शरीर आदिका दुष्प्रयोग करता है तब उससे पृथ्वी आदि कायोंके जीवकी विराधना होनेसे उसको आरम्भिकी क्रिया लगती है यहां जो अपि शब्द आया है उससे यह बतलाय गया है कि आरम्भिकी क्रिया जब किसी किसी प्रमत्त संयत को भी लगती है तब उससे नीचेके गुण स्थानोंमें तो कहना ही क्या है ? उनमें तो अवश्य हो आरम्भिकी क्रिया लगती है । इसी तरह इस पाठ में दूसरे अपि शब्दों का भी यथा योग्य समन्वय करना चाहिये ।
(प्रश्न) हे भगवन् ! पारिग्रहिकी क्रिया किसको लगती है ?
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(उत्तर) हे गोतम ! देश विरत श्रावकको भी पारिग्रहिकी क्रिया लगती है। यहां भी पूर्ववत् अपि शब्द यह बतलाया गया है कि पारिग्रहिकी क्रिया जबकि देशविरत श्रावकको भी लगती है तब उससे नीचेके गुण स्थानवालों को कहना ही क्या है ? उनको तो अवश्य ही पारिग्रहका क्रिया लगती है ।
(प्रश्न) हे भगवन ! माया प्रत्यया क्रिया किसको लगती है ?
(उत्तर) हे गोतम ! माया प्रत्यया क्रिया किसी किसी अप्रमत्त संयत को भी लगती है क्योंकि वे भी अपने प्रवचनकी बदनामीको मिटानेके लिए वल्ली करण और समुद्देश आदिमें मायाकी क्रिया करते हैं। यहां भी अपि शब्दसे यह बतलाया गया है किजब सप्तम गुणस्थानवाले अप्रमत्त संयतको भी माया प्रत्यया क्रिया लगती है तब फिर उससे नीचे गुण स्थान वालों को कहना ही क्या है उन्हें तो अवश्य ही माया प्रत्यया क्रिया लगती है ।
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(प्रश्न) हे भगवन् अप्रत्यारूपानिकी क्रिया किसको लगती है ?
(उत्तर) हे गोतम ! जो जरा भी प्रत्याख्यान नहीं करता उसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है ।
(प्रश्न) हे भगवन ! मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया किसको लगती है ?
(उत्तर) हे गोत्तम ! जो पुरुष सूत्रमें कही हुई बातों में से एक भी अक्षरपर अरुचि करता है उसको मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया लगती है । यह उक्त मूल पाठ और उसकी टीकाका अर्थ है ।
यहां मूल पाठ और उसकी टीकामें कहा है कि “जो पुरुष किञ्चित् भी प्रत्याख्यान नहीं करता उसीको अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है " श्रावक प्रत्याख्यान करता है अत: उसे अती क्रिया नहीं लग सकती इसलिए श्रावकके खाने पीने वस्त्र मकान
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