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दानाधिकारः।
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जाव महावीरस्त सन्तेहिं तच्चेहिं तहिएहिं सब्जेहिं सव्वभूएहिं भावेहिं गुण कीत्तणं करेराहे तम्हाणं अहं तुम्भे पडिहारिएणं पीढ जाव संथारएणं उवनिमंत्तेमि णो चेवणं धम्मोत्तिवा तवोतिवा"
(उपासक दशांग अध्ययन ७)
अर्थ
शकडाल पुत्र श्रावकने गोशालक महालि पुत्रसे यह कहा कि हे देवानुप्रिय ! तुमने हमारे धर्माचार्य यावत् महावीर स्वामीके विद्यमान और सत्यगुणोंका कीर्तन किया है इसलिए मैं तुझको पीठ फलक शय्या संथारा आदि देनेके लिये निमन्त्रित करहता हूं परन्तु इसे धर्म या तप समझ कर नहीं।
इस पाठमें शकडाल पुत्र श्रावक गोशालक मंखलिपुत्रको शय्या संथारा देनेसे धर्म और तप होनेका ही निषेध करता है पुण्य होनेका निषेध नहीं करता अथवा इस दानसे एकान्त पाप होना नहीं बतलाता इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि पञ्चमहाव्रत धारी साधुसे इतरको दान देना एकान्त पाप नहीं है किन्तु उससे पुण्य भी होता है। यदि साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पाप होता तो उक्त मूल पाठमें गोशालकको दान देनेसे शकडाल पुत्र एकान्त पाप बतलाता सिर्फ धर्म और तपका निषेध ही नही करता अतः शकडाल पुत्र श्रावकका नाम लेकर साधुसे इतरको दान देनेमें एकान्त पाप बताना मिथ्या समझना चाहिये।
इस शकडाल पुत्रके उदाहरणसे प्रवचन प्रभावनाके लिए साधुसे इतरको दान देना भी श्रावकोंका कर्तव्य सिद्ध होता है। शकडाल पुत्रने भगवान् महावीर स्वामीके गुणानुवाद करनेसे गोशालकको शय्या संथारा देकर प्रवचनकी प्रभावना की थी। यह प्रवचनकी प्रभावना, तीर्थक्कर गोत्रबन्धका कारण कही गयी है इसीलिये शकडाल पुत्रने गोशालकको दान देनेसे पुण्यका निषेध नहीं किया है। जो लोग कहते हैं कि "पुण्यबन्ध निर्जराके साथ ही होता है इसलिए गोशालकको दान देनेसे शकडाल पुत्रको पुण्य भी न हुआ" वे मिथ्यावादी हैं शास्त्रमें निर्जराके साथ ही पुण्यवन्ध होने का कहीं भी नियम नहीं है इसलिए प्रवचनकी प्रभावनाके लिये दान देनेसे पुण्यकी उत्पत्ति न मानना अज्ञानका परिणाम है। उक्त शकडाल पुत्रके उदाहरणसे साधुसे इतरको दान देनेसे मांस भोजनादिकी तरह एकान्त पाप होनेका सिद्धान्त सर्वथा मिथ्या कायम होता है क्योंकि साधुसे इतरको दान देना यदि मांसाहारादिके समान एकान्त पापका कार्य होता तो शकडाल पुत्र कदापि गोशालकको शय्या संथारा नहीं देता अतः शकडाल पुत्रका नाम
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