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सद्धर्ममण्डनम्।
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८० के ऊपर लिखते हैं कि “अथ अठे पिण गोशालाने पीठ फलक शय्या संथारा शकडाल पुत्र दिया तिहां धर्म तप नहीं इमि करो तो गोशाला तो तीर्थङ्कर वाजतोथो निणने दिया ही धर्म तप नहीं तो असंयतिने दियां धर्म तप किम कहिए पुण्य पिण न श्रद्धवो पुण्य तो धर्म लारे बैधे छै शुभ योग छै ते निर्जरा बिना पुण्य निपजे नहीं ते मांटे असंयतिने दियां धर्म पुण्य नहीं" (भ्र० पृ० ८१)
इकका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भ्रमविध्वंसनकारके मतमें पञ्च महाब्रवधारी साधुके सिबाय संसारके सभी जीव कुपात्र हैं, उनको दान देना या किसी प्रकारसे उनकी सहायता करना इनके मतमें मांस भोजन व्यसन कुशीलादिकी तरह एकान्त पापका कार्य है। भ्रमविध्वंसनका मूल लेख और उसकी टीप्पणी लिख कर यह कहा जा चुका है। इनका यह सिद्धान्त यदि शास्त्रानुकूल होता और शकडाल पुत्र श्रावक भी इसे मानता तो वह गोशालक जैसे असंयति और अन्य तीथियोंके शिरोमणिको शय्या संथारा देकर मांस भोजन और व्यसन कुशीलादिकी तरह एकान्त पापका कार्य क्यों करता ? क्योंकि इसके बिना शकडाल पुत्रका कोई आवश्यक कार्य नहीं रुका था। शकडाल पुत्र भी आनन्द श्रावक की तरह अभिग्रहधारो बारह व्रतधारी श्रावक था यदि अन्य तीर्थीको दान देनेसे श्रावकका अभिग्रह नष्ट हो जाता है और उसको मांस भोजनादिकी तरह एकान्त पाप होता है तो फिर शकडाल पुत्रका अभिग्रह गोशालकको दान देनेसे अवश्य ही नष्ट हो जाना चाहिये था और उसे एकांतपाप होना चाहिये था परन्तु शास्त्र में, गोशालकको दान देनेसे शकडाल पुत्रको एकान्त पाप होना या उसका अभिग्रह टूट जाना नहीं लिखा है अत: अन्य तीर्थीको दान देनेसे एकान्त पाप और अभिप्राह भङ्गकी स्थापना करना मिथ्या है। अन्य तीर्थीको गुरुबुद्धिसे मोक्षार्थ दान न देनेका ही श्रावक को अभिग्रह होता है अनुकम्पा लाकर हीन दीन दुःखीको दान देनेका नहीं होता तथा प्रवचन प्रभावनाके अर्थ भी दान न देनेका अभिग्रह नहीं होता है । अतएव शकडाल पुत्र ने गोशालकको शय्या संथारा दिया था और इस कार्यसे उसको एकान्त पाप होना शास्त्रकारने भी नहीं कहा है किन्तु इस दानसे धर्म और तप न होनेका मूलपाठमें वर्णन है एकान्त पाप होनेका या, पुण्य न होनेका कथन नहीं है। वह मूलपाठ यह है:
तएणं से सहाल पुत्ते समणो वासए गोसाल मंखलि पुत्तं एवं षयासी जम्हाणं देवणुप्पिया ? तुम्हेमम' धम्मा यरियस्स जाव
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