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सद्धर्ममण्डनम् ।
ही मिलते हैं और होना भी ऐसा ही चाहिए परन्तु भ्रमविध्वंसनकी नई प्रतिमें "किंवा भोचा किंवा समायरित्ता” यह पाठ "किंवा दचा" के अनन्तर न होकर “पञ्चणुभव माणे" इस शब्दके अनन्तर आया है इस प्रकार क्रम विरुद्ध पाठ देनेका तात्पर्य क्या है यह भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायी साधु जाने परन्तु प्रत्युत्तर दीपिकामें जो पुराने भ्रमविध्वंसनमें लिखे हुए पाठके सम्बन्धमें बात कही हुई है वह अक्षरशः सत्य है । जहां तक प्रतीत होता है कि प्रत्युत्तर दीपिकाकी सच्ची बातको मिथ्या सिद्ध करनेके लिए ही नए भ्र० वि० में “किंवा भोच्चा किंवा समायरित्ता" यह पाठ यथास्थान न देकर व्युत्क्रमसे दिया गया है। पुराने भ्रमविध्वंसनमें छपे हुए पाठके देखनेसे पाठकों को अपने आप ज्ञात हो सकता है कि प्रत्युत्तर दीपिकाकी बात सत्य है या भ्र० वि० के संशोधक महाशय की।
(बोल १९ वां) (प्रेरक) _ भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८३ के ऊपर उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १२ की चौबीसवीं गाथाको लिख कर बतलाते हैं कि “ इस गाथामें ब्राह्मणों को पापकारी क्षेत्र कहा है। जब ब्राह्मग भी पापकारी क्षेत्र हैं तो दूसरे लोगोंकी तो बात ही क्या है। साधुसे इतर सभी जोव कुपात्र हैं उनको दान देनेसे धर्म पुण्य कैसे हो सकता है ? जैसे कि उन्होंने लिखा है
" अथ अठे ब्राह्मगांने पापकारी क्षेत्र कह्या तो बीजानो स्यू कहियो ” (भ्र० पृ० ८३) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
उत्तराध्ययन सूत्रकी वह गाथा लिख कर इसका समाधान किया जाता है वह गाथा यह है:
"कोहो य माणोय वहो य जेसि मोसं अदत्तंच परिग्गरंच । ते माहणा जाइ विजा विहोणा ताई तु खेत्ताईसुपावगाई"
(उत्तराध्ययन आ० १२ गाथा २४) टीकानुसार इस गाथाका अर्थ किया जाता है।
जो ब्राह्मण, क्रोधी, मानो, मयावी और लोभी हैं, जो हिंसा झूठ चोरी और परिग्रहके सेवा हैं वे जाति और विद्यासे विहीन पापकारी क्षेत्र हैं। गुण और कर्मके अनुसार चारों वर्णोकी सुष्टि हुई है। कहा भी है:
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