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दानाधिकारः।
१३५ " इमेहिं यणं वीसाएहिं कारणेहिं अविसेसिय बहुली कएहिं तित्थयर नाम कम्मं निवत्तिसु तंजहा-अरिहन्त सिद्ध पवयण गुरुथेर वहुस्सुए तवस्सिसु वच्छलयाय तेसिं अभोक्ख णाणोवयोगे य दंसण विणए सावस्सए य सोलव्वए निरइयारं खणलवतवच्चियाए समाही य अपुषणाणगहणे सुयभत्ती पवयणपन्भावणया एएहि कारणेहिं तित्थयर लहइ जीवो"
(ज्ञाता सूत्र) : . इस पाठमें प्रवचन प्रभावनासे तीर्थङ्कर नाम गोत्रका बन्ध होना कहा है इसलिए जो पुरुष प्रवचन प्रभावनाके लिये सभीको दान देता है वह उत्तम पुण्यका उपार्जन करता है एकान्त पाप नहीं करता अतः साधुते इतरको दान देनेमें एकान्त पाप कहना मूोका काय्य है।
___ प्रवचन प्रभावनाके लिये साधुसे इतरको भी दान देने वाला पुरुष शास्त्रानुसार पुण्यका कार्य करता है परन्तु जीतमलजोके हिसाबसे यह एकान्त पापी ठहरता है अतः शास्त्र विरुद्ध जीतमलजोको प्ररूपणा सर्वथा त्यागने योग्य और मिथ्या है।
यदि कोइ कहे कि प्रवचनको प्रभावनाके लिये सभीको दान देनेसे जब कि पुण्य ही होता है तो सभी जीव दान देने योग्य क्षेत्र ही कायम होते हैं कोई भी अक्षेत्र या कुक्षेत्र नहीं ठहरता फिर ठाणाङ्गके उक्त मूल पाठमें क्षेत्र और अक्षेत्रको लेकर उक्त चतुभङ्गी कैसे लिखी गयी है ? तो उससे कहना चाहिए कि प्रवचन प्रभावना रूप पुण्यके हिसाबसे यहां क्षेत्र और अक्षेत्रका विचार नहीं रक्खा गया है क्योंकि प्रवचन प्रभावना. के निमित्त दिये जाने वाले दानके सभी क्षेत्र हो हैं कोई भी अक्षेत्र नहीं है । वेश्या चोर जार आदिको भी उनका कुकर्म छुड़ा कर सुमार्गमें स्थापित करनेके लिए दान देना भी प्रवचनकी प्रभावना है अतः जो जिस दानके लायक नहीं है वह उस दानका यहां अक्षेत्र समझा जाता है। जैसे मोक्षार्थ दानका साधुसे भिन्न जीव अक्षेत्र हैं और अनुकम्पा दानका हीन दीन दुःखी जीवसे भिन्न अक्षेत्र हैं इसी तरह यहां क्षेत्र और अक्षेत्रका विभाग समझना चहिये यह नहीं कि साधुसे भिन्न सभी जीव अक्षेत्र या कुक्षेत्र हों अतः साधुसे भिन्न सभी जीवको अक्षेत्र कायम करके उनको दान देनेसे एकान्त पाप बताना मूखों का कार्य है।
(बोल १७ वां समाप्त)..
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