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मिथ्यात्विक्रियाधिकारः।
है ? जब वृक्ष ही नहीं है तो शाखा पत्र कहांसे होंगे ? धर्मध्यान सम्यग्ज्ञान और सम्यक् दर्शनके साथ ही होता है इस विषयमें ठाणाङ्ग सूत्रका मूलपाठ और उसकी टीका लिखकर प्रमाण बतलाया जाता है।
"चत्तारि झाणा पण्णता, तंजहा-अशाणे रोदे झाणे धम्मेझाणे सुके झाणे"
"धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ एगाणुप्पेहा, अणिचाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा" .
(ठाणाङ्गठाणा ४ उ०१) इस पाठकी टीका यह है
"ध्यातयोध्यानानि अन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालंचित्तस्थिरतालक्षणानि। उक्तच-"अन्तोमुहूत्त मित्तं चित्तावत्थाणमेग वत्थुम्मि छउमत्थाणं झाणं जोगणिरोहो जिणाणंतु" तत्र ऋतं दुःखं तस्य निमित्तं तत्रभवंवा ऋते पीडिते भवमात ध्यानं छढोऽध्यवसायः । हिंसायतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम् । श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्यम् शेधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचंवा क्लमयतीति शुक्लम्"
___ अर्थात् किसी एक विषयमें अन्तर्मुहूत्त तक चित्तको स्थिर रखना, ध्यान कहलाता है। कहा भी है किसी एक वस्तुमें अन्तर्मुहूर्त तक चित्तको स्थिर रखना ध्यान है। ऐसा ध्यान छद्मस्थोंका होता है। योगनिरोध काल तक सब वस्तुओंका ध्यान केवलियों का होता है वह ध्यान चार प्रकारका है आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, और शुक्लध्यान । जो ध्यान दुःखका कारण है अथवा दुःख होने पर होता है उसे आर्तध्यान कहते हैं। जो ध्यान हिंसा आदि क्रूरतासे युक्त होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है। जो ध्यान, सम्यग्ज्ञानदर्शन और चारित्रके साथ होता है वह धर्मध्यान है। जो ध्यान आठ प्रकारके कर्ममलोंको दूर करता है या शोकको दूर करता है वह शुक्लध्यान है।
___ इनमें सम्यग् ज्ञान दर्शन और चारित्रके साथ होने वाले धर्मध्यानकी चार अनुप्रेक्षाए कहीं हैं। ध्यान होने के पश्चात् भावना या पर्सालोचना करनेको 'अनुप्रेक्षा' कहते हैं। पहली अनुप्रेझाको 'एकानुप्रेक्षा' कहते हैं। मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है ऐसी भावना करना एकानुप्रेक्षा है। दूसरी 'अनित्यानुप्रेक्षा' है। यह शरीर नाशवान है सम्पत्ति दुःखका स्थान है, संयोग, वियोगका हेतु है उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थ नश्वर हैं इस प्रकार जीवन आदिके विषयमें अनित्यताकी भावना करना 'अनित्यानुप्रेक्षा' है। तीसरी 'अशरणानुप्रेक्षा' है। इसका अर्थ जन्म जरा और मरणके भयसे भीत, व्याधि
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