________________
१३०
सद्धर्ममण्ड नम् ।
. इस पद्यके अनुसार भ्रमविध्वंसनकारके लिखे हुए टव्वा अथका तात्पर्य यही है कि पात्रको दान देनेसे तीर्थंकर नामके सदृश उच्च पुण्य प्रकृतिका बंध होता है और दूसरे को देनेसे दूसरी पुण्य प्रकृति बंधती है, यह नहीं कि सभी पुण्य प्रकृति पात्रको ही दान देनेसे बंधे और दूसरेको दान देनेसे एकान्त पाप हो अतः उक्त टव्वा अर्थके आश्रयसे साधुसे भिन्नको दान देनेसे एकान्त पाप कहना अज्ञानका परिणाम है। . ऊपर लिखा हुआ ठाणाङ्ग सूत्रका 'नवविहे पुण्णे पण्णत्ते' इत्यादि पाठ, पुण्यका वर्णन करनेके लिये आया है पापका वर्णनके लिये नहीं इसलिये इस पाठमें पापका वर्णन वताना मिथ्या है । जब कि इस पाठमें पापका वर्णन नहीं है पुण्यका ही वर्णन है तब फिर इसका अर्थ करते हुए टम्वाकार साधुसे इतरको दान देनेसे पाप होना कैसे बतला सकते हैं ? यह बुद्धिमानोंको स्वयं सोच देना चाहिये।
(बोल चौदहवां) (प्रेरक)
भ्रभविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७९ पर लिखते हैं कि "मने भगवन्त तो साधुने कल्पे तेहिज द्रव्य कया छै अनेराने दियां पुण्य हुवे तो गाय पुण्णे भैंस पुण्णे हप्यो पुण्णे खेती पुण्णे इत्यादिक बोल आणतां ते तो आण्या नहीं" इनके कहने का तात्पय्य यह है कि ठाणाङ्गके उक्त पाठमें साधुके लेने योग्य वस्तुका ही नाम लेकर पुण्य होना कहा है जो साधुके लेने योग्य चीज नहीं है उसके दान करनेसे पुण्य होना नहीं कहा है इसलिये इस पाठमें साधुको दान देनेसे ही पुण्यवन्ध बताया है साधुसे इतरको दान देनेसे नहीं इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भ्रमविध्वंसनकारकी यह कल्पना अयुक्त है। यदि साधुके कल्पनेयोग्य वस्तुमोका ही कथन ठाणाङ्गके इस पाठमें है तो फिर 'सुई पुण्णे कतरनी पुण्णे भस्म पुण्णे' इत्यादि पाठ भी यहां होना चाहिये, क्योंकि साधुको सुई कतरनी अचित्त मिट्टीके ढेले और भस्म भी कल्पनीय होते हैं अत: इनके दान करनेसे भी पुण्य ही होता है पाप नहीं होता फिर ये सब इस पाठमें क्यों नहीं कहे गये ? इससे ज्ञात होता है कि यह पाठ केवल साधुके लिए ही नहीं किन्तु सभी प्राणियोंके लिये आया है और पुण्यके निमित्त दूसरे प्राणीको दान देनेसे भी पुण्य ही होता है एकांतपाप नहीं होता अतः केवल साधुको ही देनेसे पुण्य बन्ध मान कर साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पाप कहना अज्ञान है। इस पाठ्में जो नव बातोंसे पुण्य होना कहा है उसका तात्पर्या यह नहीं है कि इन नव
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com