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इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक )
भ्रमविध्वंसन कारने जो टव्वा अर्थ लिखा है वह अपूर्ण है भीषणजीके जन्मसे पहले के बने हुए टब्बा अर्थ में उक्त मूल पाठका अर्थ इस प्रकार किया है “पात्रने विषे अन्नादिक दीजे तेथ की तीर्थ कर नामादिक पुण्य प्रकृतिनो बन्ध तेहथकी अनेराने देव ते अनेरी पुण्य प्रकृतिनो बंध " इस टव्वा अर्थ में साधुसे इतर जीवको दान देने से पुण्य प्रकृतिका बंध होना स्पष्ट लिखा है इसलिए भ्रमविध्वंसनकारने इस टव्वा अर्थको छोड़ कर दूसरा अपूर्ण टव्वा अर्थ दिया है। वह टव्वा अर्थ भी साधुसे भिन्नको दान देने से पाप होना नहीं बतलाता तथापि खींचातानी करके जीतमलजीने साधुसे इतरको दान देनेमें एकान्त पाप सिद्ध करने की चेष्टा की है इनके लिखे हुए दवा अर्थ में लिखा है "अनेरा ने देवु ते अनेरी प्रकृतिनो बंध " इसमें "अनेरी प्रकृतिनो बंध " यह लिखा है "पाप प्रकृतिनो वन्ध 'यह नहीं लिखा है और अनेरी प्रकृति, तीर्थ कर नामादिक पुण्य प्रकृति से भिन्न पुण्य भी हो सकता है इसलिए अनेरी प्रकृतिका तात्पर्य पापकी प्रकृति बतलाना दुराग्रहका परिणाम है । अनेरी प्रकृतिको पापकी प्रकृति सिद्ध करने के लिए भ्रमविध्वंसनकार जो यह लिखते हैं कि “जिम ऋषभादिक कहिये चौबीसुई तीर्थंकर आया, प्राणातिपातादिक कहिवे अठारह पाप आया, मिथ्यात्वादिक आस्रव कहिवे पांच आस्रव आया तिम तीर्थ करादिक पुण्य प्रकृति कहिवे सर्व पुण्यनी प्रकृति आई वली का पुण्यनी प्रकृति बाकी रही नहीं " यह इनका कथन भी अयुक्त है । ऋषभदेवजी सब तीर्थ करोसे प्रथम हैं, गोतम स्वामी महावीर स्वामीके सभी साधुओंमें आदि हैं, अठारह पापोंमें सबसे प्रथम प्राणातिपात है, आस्रत्रोंमें मिथ्यात्व ही पहला आस्त्रत्र है इसलिए ऋषभादि तीर्थ कर कहने से चौबीस ही वीर्थ करका, गोतमादि साधु कहने से सभी साधुओंका, प्राणाति पातादि पाप कहने से सभी पापोंका और मिथ्यात्वादि आस्रव कहने से सभी सत्रों का ग्रहण होता होता है परन्तु तीर्थंकरादि पुण्य प्रकृति कहने से सभी पुण्य प्रकृतिओंका ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि तीर्थंकर नामकी पुण्य प्रकृति वेयालीस पुण्य प्रकृतियोंके अन्तमें है आदिमें नहीं है इसलिये जैसे सब तीर्थकरोंके अन्त में होने के कारण महावीरादि तर्थंकर कहने से सभी तीर्थंकरोंका ग्रहग नहीं हो सकता उसी तहर सभी पुण्य प्रकृतियोंके अन्तमें होने के पुण्य प्रकृति कहने से वेयालीस ही पुण्य प्रकृतियों का ग्रहण नहीं हो टीकानुसार तीर्थ कर नामकी पुण्य प्रकृति सबसे अन्तमे है आदिमें यहद्दैः
कारण तीर्थ करादि
सकता । शास्त्रकी नहीं है वह टीका
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सद्धर्ममण्डनम् ।
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