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दानाधिकारः।
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छोटे साधु बड़े साधुको छोटे श्रावक बड़े श्रावकको छोटा भाई बड़े भाईको पुत्र अपने माता पिता आदि गुरु जनोंको जो वन्दन नमस्कार करते हैं उन सभीसे पुण्य ही होता है एकान्त पाप नहीं होता कोई कोई कहते हैं कि हीन दीन दुःखीको अनुकम्पा दान देनेसे यदि पुण्य होता है तो उसको नमस्कार करनेसे भी पुण्य होना चाहिए, उनसे कहना चाहिए कि अनुकम्पा, छोटे बड़े सब पर की जाती है पर वन्दन नमस्कार अपने से श्रेष्ठको ही किया जाता है। सबको नहीं। होन दीन दुःखी अनुकम्पा करनेके पात्र हैं पर श्रेष्ठ न होनेके कारण नमस्कार करनेके पात्र नहीं हैं इसलिए उनको अनुकम्पा दान देनेसे पुण्य होता है पर नमस्कार करनेसे नहीं इस प्रकार बातके स्पष्ट होनेपर भी खोटे कुतर्कको सहायतासे अनुकम्पा दान देने और साधुसे इतर माता पिता श्रेष्ठ श्रावक आदिको नमस्कार करनेमें एकान्त पाप कहना अज्ञानियोंका काय्य है।
कोई कोई कहते हैं कि "साधुसे इतरको दान देनेसे यदि पुण्य होता है तो कसाई को बकरा मारनेके लिये, चोरको चोरी कराने के लिए, वेश्याको व्यभिचार सेवन करने के लिए दान देनेसे भी पुण्य होना चाहिये" उनसे कहना चाहिए कि चोरी हिंसा और व्यभिचार सेवनार्थ चोर, हिंसक और वेश्या आदिको दान देना अधर्म दान है और दाता भी यह दान एकान्त पापके भावसे देता है अतः इसमें एकान्त पाप ही होता है पुण्य नहीं होता जो दान पुण्यार्थं दिया जाता है उसीसे पुण्य बन्ध होता है और उसी दानका ठाणाङ्ग सूत्रके नवमे ठाणेमें कथन हुआ है अतः जो दान पुण्यके अर्थ हीन दीन दुःखी जीवों पर दया लाकर दिया जाता है उसीसे पुण्य होता है चोर, हिंसक, वेश्या आदिको चोरी हिंसा और व्यभिचारार्थ दिया जानेवाला दानसे नहीं अतः चोरी हिंसा और व्यभिचारार्थ चोर हिंसक और वेश्याको दिये जानेवाले दानके समान ही अनुकम्पा दानको भी एकान्त पापमें ठहराना अज्ञानियोंका कार्य है।
[बोल १३ वां समाप्त (प्रेरक
__ आपके कथनसे ज्ञात हुआ कि ठाणाङ्ग सूत्रोक्त नवविध पुण्य केवल साधुको ही दान देनेसे नहीं साधुसे इतरको देनेसे भी होते हैं परन्तु ठाणाङ्ग सुत्रके उक्त पाठके नीचे जीतमलजीने टव्वा अर्थ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखा है कि "अने जे टव्वामें कह्यो पात्रने विषे जे अन्नादिकनो देवो ते हथकी तीर्थ करादिक पुण्य प्रकृति नो बन्ध तो आदि शब्दमें तो बेयाली सुई पुण्य प्रकृति आई" फिर आगे चल कर लिखा है "वलीकांई पुण्य नी प्रकृति बाकी रही नहीं अनेराने दीधां अनेरी प्रकृतिनो बन्ध ते अनेरी प्रकृति पाप नीछै" (भ्र० पृ० ७९)
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