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सद्धर्ममण्डनम् ।
वन्दन नमस्कार और सेवा शुश्रूषा करनेसे पुण्यवन्ध होना कहा है अन्यको वन्दन नमस्कार आदि करनेसे नहीं" तो उससे कहना चाहिये कि टीकाकारको यदि यही इष्ट होता तो “गुणिषु" के स्थानमें "साधुषु" ऐसा लिखते परन्तु यह नहीं लिख कर जो “गुणिषु" यह पद दिया है इससे सभी गुणियोंके ग्रहण करने का आशय है केवल साधुको ही नहीं तथा साधु ही गुणवान होते हैं यह भी मिथ्या है साधुसे इतर भी गुणवान कहे गये हैं ठाणाङ्ग सूत्रकी टीकामें सङ्घ शब्दका अर्थ करते हुए टीकाकारने लिखा है कि "सङ्घः गुण रत्न पात्र भूत सत्त्व समूहः अर्थात् गुणरूपी रत्नोंके पात्र भूत जीवोंके समूहका नाम संघ है उस सङ्घमें केवल साधु ही नहीं किन्तु श्रावक श्राविका भी मौजूद रहते हैं इसलिए साधुसे इतर भी गुणवान होते हैं उन सभी गुणवान् पुरुषोंका ग्रहण करने के लिए ऊपर लिखी हुई टीकामें 'गुणिषु' यह पद आया है अतः उक्त टीकामें “गुणिषु" इस पदका अर्थ केवल साधु बतलाना मिथ्या है ।
साधुसे इतरकी प्रशंसा करनेसे भी ठाणाङ्ग सूत्र में पुण्य बन्ध होना कहा है वह पाठ यह है:
"पंचहिं ठाणेहिं जीवा सुलभ वोधियत्ताए कम्मं पकरें ति तंजहा-अरिहंताणं वन्न वदमाणे जाव विवक्क तव वंभचेराणं देवाणं बन्नं वदमाणे"
(ठाणाङ्ग ठाणा ५) ____ अर्थात् पांच कारणोंसे जीब मुलभ वोधो कर्म बांधते हैं अरिहन्तोंकी प्रशंसा करनेसे, अरिहन्त भाषित धर्मकी प्रशंसा करनेसे आचाय्य और उपाध्यायकी प्रशंसा करनेसे, साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओंके समूह की प्रशंसा करनेसे, तथा उत्तम श्रोणिका ब्रह्मचर्य धारण करने वाले देवताओंकी प्रशंसा करनेसे।
यहां मूल पाठमें उत्तम श्रेणिका ब्रह्मचर्य धारण करने वाले देवताकी प्रशंसा करने से सुलभ वोधी कमका बन्ध होना कहा है अतः साधुसे इतरकी प्रशंसा करनेमें एकान्त पाप कहना मिथ्या है। जिस प्रकार साधुसे इतर परिपक्क ब्रह्मचर्य वाले देवताकी प्रशंसा करनेसे पुण्यबन्ध होता है उसी तरह साधुसे इतर गुगी पुरुषकी बन्दना नमस्कार सेवा शुश्रूषा करनेसे और हीन दीन दुःखीको अनुकम्पा दान देनेसे पुण्य बन्ध होता है यदि साधुसे इतरको दान देनेसे पुण्यवन्ध न हो तो फिर साधुसे इतर परिपक्क ब्रह्मचर्य वाले देवताकी प्रशंसा करनेसे भी पुण्य बन्ध न होना चाहिये इसलिए साधुसे इतरको दान सम्मान वन्दन नमस्कार करनेमें एकान्त पाप कहना मिथ्या है।
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