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सद्धमण्डनम् ।
जो एकान्त पापका कार्य करने वाला कहता है वह अज्ञानी है जिनसे चोरी जारी और हिंसा आदि सावध कर्मों का प्रचार बन्द होता है वे कदापि एकान्तपापी नहीं हो सकते । यदि कोई कहे कि ये स्थविर मोक्षमार्गके सहायक नहीं हैं किन्तु लोकोत्तर स्थविरों को छोड़ कर बाकी सब स्थविर सांसारिक कार्य्यकी व्यवस्था करते हैं और सांसारिक सभी का बुरे हैं इसलिए उनके स्थविर भी एकान्त पाप करने वाले हैं तो वह मिथ्यावादी है लौकिक स्थविर, जनताकी बुरी प्रवृत्तिको रोक कर उन्हें सन्मार्गमें स्थापन करते हैं तथा ग्राम नगर यादिमें चोरी जारी हिंसा आदि एकान्त पापोंके प्रचारको बन्द करते हैं एवं ग्राम नगर और राष्ट्रमें शान्ति स्थापित करके श्रुत और चारित्र धर्मके पालनमें भी सहायता देते हैं । जिस ग्राम नगर या राष्ट्र में शांति तथा सुव्यवस्था न हो वहां श्रुत और चारित्र धर्मका पालन नहीं हो सकता इसलिए ये स्थविर मोक्षधर्मके भी उपकारक हैं अतः लौकिक होनेसे इन्हें एकान्त पापमें कहना शास्त्र नहीं जाननेवालों का कार्य है । पूर्वोक्त दश स्थविर और दश धर्म सभी अपने अपने काय्र्यक्षेत्रमें अच्छे हैं कोई भी बुरा नहीं है इसी तरह दशविध दानोंमें भी अधर्म दानको छोड़ कर शेष अनुकम्पा आदि दान भी एकान्त पापमें नहीं हैं किन्तु अनुकम्पा दानका फल अनुकम्पा और संग्रह दान का फल दीन दुःखी आदिको सहायता देना एवं भय दान आदिका उनके नामानुसार फल हैं इसलिए धर्मदानको छोड़ कर बाकी के दान एकान्त पापमें नहीं हैं । अतः जो ग्रामधर्म आदि धर्म तथा ग्राम स्थविर आदि स्थवरों को अपने मनसे एकान्त पापमें ठहरा कर उनके दृष्टान्तसे अनुकम्पादान आदिको एकान्त पापमें कायम करता है उसे मज्ञानियोंका शिरोमणि समझना चाहिये ।
( बोल १२ वां)
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७८ पर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा नौ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
"अनेराने दोघां अनेरी प्रकृतिनो वन्ध को छै ते साधुथी अनेगे तो कुपात्र छै ते " दीघां ने प्रकृतिनो बन्ध ते अनेरी प्रकृति पापनी छै" इनके कहनेका आशय यह है कि ठाणाङ्ग सुत्रमें कहे हुए नौ प्रकारके पुण्य साधुको देनेसे ही होते हैं दूसरे को देने नहीं दूसरे को दान देनेसे एकान्त पाप होता है क्योंकि साधुसे इतर सभी कुपात्र हैं। इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक )
ठाणाङ्ग सूत्रका मूलपाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है । वह पाठ
यह है :
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