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सद्धर्ममण्डनम् ।
हो । जहां उक्त धर्मों का पालन न होकर चोरी जारी हिंसा आदिका साम्राज्य हो उस स्थान पर चारित्री पुरुषका चारित्र नहीं पल सकता। अतएव श्रुत तथा चारित्रधर्म के पालन करने वाले पुरुषोंके ठाणाङ्ग सूत्रमें पांच सहायक बताए हैं वह पाठ
"धम्मं चरमाणस्स पंचणिस्सा ठाणा पण्णत्ता तंजहा-छकाए, गणे, राया, गिहपती, सरीरं"
(ठाणाङ्ग ठाणा ५) अर्थात् श्रुत और चारित्र धर्मका पालन करने वाले पुरुषोंके पांच सहायक होते हैं वे ये हैं:-छकाया, गण, राजा, गृहपति और शरीर ।
यहां छः काय आदिके समान ही राजा भी श्रुत और चारित्रधर्मके पालनमें सहायक माना गया है । यदि राजा न हो तो राष्ट्रमें शांति और सुव्यवस्था नहीं रह सकती और शांति तथा सुव्यवस्थाके विना श्रुत और चारित्रधर्मका पालन नहीं हो सकता इसलिये ठाणाङ्गसूत्रमें श्रुत और चारित्रधर्मके पालनमें राजा भी सहायक माना गया है। जिस प्रकार राज्यमें शांति और सुव्यवस्थाके विधान करनेसे राजा, श्रुत और चारित्रधर्मके पालन में सहायक होता है उसी तरह प्रामधर्म, नगरधर्म और राष्ट्रधर्म भी ग्राम आदिकी सुव्यवस्था करके श्रुत और चारित्र धर्मके पालनमें सहायक होते हैं अतः ये लौकिकधर्म होने पर भी परम्परासे मोक्षके साधक हैं इसलिये इन्हें एकान्त पापमें कहना अज्ञानियों का कार्य है।
पाषण्ड धर्म भी एकान्त पापमें नहीं है क्योंकि पाषण्ड नाम प्रतका है और प्रतधारियोंके धर्मका नाम पाषण्ड धर्म है इसलिए यह भी एकान्त पापमें नहीं हो सकता। पर पाषण्डियोंके धर्ममें भी कई उत्तम गुण होते हैं और उन उत्तम गुणोंके प्रभावसे पर पाषण्डी भी स्वर्गगामी होते हैं इसलिए पर पाषण्डियोंके धर्मको भी एकान्त पाप नहीं कह सकते इसी प्रकार कुल, गग और सङ्घधर्म भी एकान्त पापमें नही हैं । उक्त दश ही धर्म अपने अपने कार्यक्षेत्रमें अच्छे हैं कोई भी बुरा नहीं है इसलिये इन दशविध धर्मों में से कई धर्मोको एकांत पापमें कायम करना अज्ञानका कार्य समझना चाहिये।
इन दश विध धर्मों की व्यवस्था करनेवाले स्थविर भी दशप्रकारके कहे गये हैं वे सभी अपने अपने कार्यक्षेत्रमें अच्छे हैं कोई भी एकांत पापी नहीं है अत: कई स्थविरों को एकान्त पापी कहना भी अज्ञान है। इन स्थविरोंका स्वरूप ठाणाङ्ग सूत्रका मूलपाठ लिख कर बताया जाता है । वह पाठ
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