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दानाधिकारः ।
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" सायं १ उच्चागोय २ नर ३ तिरि ४ देवाङ ५ नाम एयाउ ६ मनुयदुर्ग ७ देव दुगं ९ पञ्चेन्दिय जाइ १० तणुपणगं १५ अङ्गोवंग तिथंपिय १८ संघयणं वज्जरिसहनारायं १० पढमं चिप संदानं वन्नाइ चक्क सुपसत्थं । अगुरुलघु २५ पराधाय २६ उस्सासं २७ आयवंच २८ उज्जोय २९ सुपसत्था विहयगह ३० तसाइ सदगंच ४० णिम्माणं तित्थयरेणं सहिया वयाला पुण्ण पगइओ " (ठाणाङ्ग टीका)
इस गाथामें वेयालीस पुण्य प्रकृतियों का क्रमशः वर्णन करते हुए सबसे पहले सातावेदनीय पुण्य प्रकृतिका नाम आया है और सभीके अन्तमें तीर्थ कर नाम पुण्य प्रकृति कही गई है अतः सातावेदनीयादि पुण्य प्रकृति कहने से वैयालीस ही पुण्य प्रकृतिका ग्रहण
सकता है किन्तु तीर्थं करादि पुण्य प्रकृति कहने से नहीं। ऊपर लिखी हुई गाथामें पुण्य प्रकृतियोंका जो क्रम बतलाया है वही क्रम भीषणजीने भी स्वीकार किया है: "नव सद्भाव पदार्थ निर्णय" नामक पुस्तक में पुण्य की ढालमें भीषणजीने वेयालीस पुण्य प्रकृतियोंका इसे वर्णन किया है। सर्वप्रथम सीतावेदनीयको, और सबसे अन्तमें तीर्थकर नाम की पुण्य प्रकृतिको भीषणजीने माना है अतः उपरोक्त टीकामें जो वेयालीस पुण्य प्रक· वियोंका क्रम बतलाया है वह जीतमलजीको भी मान्य है । जब कि तीर्थंकर नामकी पुण्य प्रकृति सबसे अन्तमें मानी जाती है तब तोर्थंकरादि पुण्य प्रकृति कहनेसे सभी पुण्य प्रकृतियोंका ग्रहण कैसे हो सकता है ? अतः तीर्थ करादि पुण्य प्रकृतिसे सभी पुण्य प्रकृतियोंका ग्रहण बताना मिथ्या है। यदि कोई पूछे कि तीर्थंकर नामकी पुण्य प्रकृति जब कि वेयालीसही पुण्य प्रकृति के अन्तमें है तब फिर तीर्थंकरादि पुण्य प्रकृति
नेका यहां क्या तात्पर्य है ? तो उससे कहना चाहिये कि तीर्थ करादि शब्दके आदि शब्दका यहां साहश्य अर्थ है प्राथम्य अर्थ नहीं इसलिये तीर्थंकर नामकी पुण्य प्रकृतिके
विशिष्ट पुण्य प्रकृतियोंका ग्रहण करनेके लिये यहां आदि शब्द टीका और टव्वामें आया है। आदि शब्दका साहश्य अर्थ भी पूर्वाचाय्यों ने कहा है जैसे कि:
"सामीप्येच व्यवस्थायां प्रकारेऽवयवे तथा
मेधावी ह्यादि शब्दंतु लक्षयेत् ।
अर्थात् आदि शब्दके चार अर्थ पण्डितोंको जानने चाहिये, [१] सामी [२] व्यवस्था [३] प्रकार ( सादृश्य ) [४] और अवयव ।
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