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दानाधिकारः।
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"नवविहे पुण्णे पण्णत्ते तंजहाअन्न पुण्णे, पाण पुण्णे, लेण पुण्णे, सयण पुण्णे, वत्यषुण्णे, मन पुण्णे, वय पुण्णे, काय पुण्णे, नमोक्कार पुण्णे"
(ठाणाङ्ग ठाणा ९) अर्थ:
पुण्य नौ प्रकारके होते हैं अन्न दान देना, जल दान देना, घर मकान देना, शय्या संथारा देना, वस्त्र दान देना, गुणवान् पुरुष पर हर्षित रहमा, पचनसे गुणवान्की प्रशंसा करना और गुणवान्को नमस्कार करना।
यहां मूल पाठमें किसीका नाम निर्देश न करके साधारण रूपसे अन्न जल आदि के दान देनेसे पुण्य बन्ध होना कहा गया है इसलिए हीन दीन जीवोंको दया लाकर दान देनेसे एकान्त पाप कहना मूखीका कार्य है। कोई कहते हैं कि “साधुसे भिन्नको दान देनेसे यदि पुण्य होता है तो साधुसे भिन्नको नमस्कार करने और उसकी प्रशंसा करनेसे भी पुण्य होना चाहिए परन्तु साधुसे भिन्नको नमस्कार और प्रशंसा करनेसे पुण्य नहीं होता अतः साधुसे इतरको दान देनेसे भी पुण्य नहीं होता है" उनसे कहना चाहिए कि तुम्हारी यह कल्पना मिथ्या है साधुसे इतरको बन्दन नमस्कार करने और प्रशंसा करनेसे भी पुण्य होता है परन्तु जिसको वन्दन नमस्कार तथा प्रशंसा की जाय वह पुरुष गुणवान होना चाहिए जैसे कि टीकाकारने लिखा है:-"मनसा गुणिषु तोषाद्वाचा प्रशंसनात्कायेन पुर्युपासनान्नमस्काराच्च यत्पुण्यन्तन्मनः पुण्यादीनि” अर्थात् गुणवान पुरुषोंपर मनमें प्रसन्नता लाने और वचनसे उनकी प्रशंसा करने
और शरीरसे उनकी सेवाशुश्रूषा करने तथा उनको नमस्कार करनेसे जो पुण्य होता है उसे क्रमशः मनःपुण्य वचन पुण्य कायपुण्य और नमस्कार पुण्य कहते हैं ।
यहां टीकाकारने गुणवान् पुरुषमें प्रसन्नतालाने उनकी प्रशंसा आदि करनेसे पुण्यवन्य होना कहा है केवल साधुको ही नमस्कार आदि करनेसे पुण्यवंध होना नहीं कहा इसलिए साधुसे इतर सभीको वन्दन नमस्कार आदि करनेसे पाप बतलाना मिथ्या है। जिस प्रकार साधुसे इतर गुणवान् पुरुषको वन्दन नमस्कार और सेवा शुश्रूषा आदि करनेसे पुण्य होता है उसी तरह साधुसे इतर हीन दीन जीवोंपर अनुकम्पा करके दान देनेते भी पुण्य होता है अतः हीन दीन जीवोंपर दया लाकर दान देनेसे जो एकान्त पाप बतलाते हैं वे मिथ्यावादी हैं।
यदि कोई कहे कि "ऊपर लिखी हुई टीकामें जो "गुणिषु" यह पद आया है उस का साधु अर्थ है क्योंकि गुणवान् साधु ही होते हैं इसलिए उक्त टीकामें साधुको ही
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