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अथ दानाधिकारः।
कईएक अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप होनेका उपदेश देकर श्रावकोंसे उसका त्याग कराते हैं परन्तु जिस समय कोई दयालु पुरुष, हीन दीन दुःखी अनाथ प्राणीको कुछ देता है और वे दीन दुःखी लेते हैं उस समय एकांत पाप कह कर उसका (अनुकम्पा दानका ) निषेध नहीं करते क्योंकि उस समय अनुकम्पा दानके त्याग करानेसे अन्तरायका पाप लगना वे भी मानते हैं। जैसे कि भ्रम० कारने लिखा है-"लेतो देतो इसो वर्तमान देखि पाप न कहे उण वेलां पाप कहां जे लेवे छ तेहने अन्तराय पडे ते मांटे साधु वर्तमाने मौन राखै " (भ्र० पृ०५) आगे चल कर भ्र० पृ० ७२ पर लिखा है "राजादिक वा अनेरा पुरुष कुआं, तालाव, पो, दानशाला विषय उद्यतथयोथको साधु प्रति पुण्य सद्भाव पूछे तिवारे साधुने मौन अवलम्बन करनी कही पिण तीन कालने निषेध कयो नथी"
वास्तवमें यह प्ररूपणा जैन शास्त्रसे सर्वथा प्रतिकूल है। जैन शास्त्र किसी कालमें भी अनुकम्पा दानका प्रतिषेध नहीं करता। उपदेशमें अथवा भूतकाल औरवर्तमान कालमें अनुकम्पा दानको एकान्त पाप कह कर त्याग करानेकी शिक्षा जैन शास्त्र नहीं देता प्रत्युत इसे पुण्यका भी कारण कहता है इसलिए जो उपदेशमें अनुकम्पा दानको एकान्त पाप कह कर श्रावकोंसे उसका त्याग कराते हैं वे मिथ्यादृष्टि और उत्सुत्रभाषी हैं।
शास्त्रमें अनुकम्पा दानके निषेध करनेसे तीनों ही कालमें अन्तराय होना कहा है परन्तु देनेवाला देता हो और लेनेवाला लेता हो उसी समयमें अन्तराय होना नहीं कहा है। अतः उपदेशमें या किसी भी समयमें जो अनुकम्पा दानका निषेध करता है वह अन्तरायका भागी और हीनदीन जीवोंकी जीविकाका अपहरण करनेवाला है। शास्त्र में अधर्म दानको एकान्त पाप कह कर उसका त्याग कराना तीनों ही कालमें धर्म माना है। कोई अधर्म दान दे रहा हो और चोर जार हिंसक प्राणी उसे चोरी जारी हिंसाके लिए ले रहे हों उस समयमें भी साधु समझा बुझा कर उस अधर्म दानका यदि त्याग करावे तो इसमें धर्म ही होता है पर अन्तराय नहीं होता। कोई आभिप्रहिक मिथ्यात्वी न माने तो लाचार होकर साधु यदि मौन रह जाय तो यह बात दूसरी है, परन्तु योग्य पुरुषको किसी भी समयमें समझा कर उससे अधर्म दानका त्याग कगना अन्तराय
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