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दानाधिकारः ।
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भोजी अनुकम्पादानका यहां तक विरोध किया है कि यदि कोई अनुकम्पा दान देनेका त्याग कर देवे तो उसे उन्होंने अतिशय बुद्धिमान कहा है देखिये - भीषणके इस अभिप्राय ये पद्य हैं
"अव्रतमें दान दे, तेहनों टालन से करे उपायजी । जाने कर्म बंधे छै म्हारे मोने भोगवतां दुःखदायजी । अत्रतमें दान देवां तगूं कोई त्याग करे मन शुद्धजी । तिणरो पाप निरन्तर टालियो तीणरी वीर बखाणी बुद्धिजी ।" (पद्य भीषणजीके)
इन पद्योंमें भीषगजीने अव्रतमें दान न देने वाले की बुद्धिकी प्रशंसा वीर प्रभुसे किया जाना कहा है परन्तु केशी स्वामीने राजा प्रदेशीसे नहीं कराया । यदि भीषगजीकी उक्ति सत्य होती तो अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप कह कर उसका अवश्य रहते । अतः अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप बताने वाले मिथ्यावादी हैं ।
अव्रतमें दान देनेका त्याग केशी स्वामी राजा प्रदेशीको त्याग कराते, मौन होकर न
इसी तरह भ्रमविध्वंसनकारने जो यह लिखा है कि "राजरा चार भाग करने आप न्यारो होय धर्मेध्यान करवा लाग्यो” यह भी मिथ्या है। राजप्रश्नीय सूत्रके मूल पाठ अनुकम्पादान देते हुए राजा प्रदेशीको धर्मध्यान करना लिखा है दान देनेसे न्यारा होकर धर्मध्यान करना नहीं । देखिये वहांका पाठ यह है
" तत्थ वहुहिं पुरिसेहिं जाव उवक्खडावेत्ता
समण माहाणं परिभोयमाणे विहरति”
अर्थात् राजा प्रदेशी दानशालामें बहुत पुरुषोंके द्वारा चतुर्विध आहार तयार करा कर बहुतसे श्रमण माहन और राहगीरोंको भोजन कराता हुआ विचरने लगा ।
यहां मूलपाठ दान देनेसे न्यारा होकर राजा प्रदेशीका विचरना नहीं किंतु दान देते हुए विचरना लिखा है। अतः राजा प्रदेशीका दान देनेसे न्यारा होकर विचरनेकी प्ररूपणा मिथ्या है।
( बोल चौथा )
( प्रेरक )
असंयतिको अनुकम्पा लाकर दान देना यदि एकान्त पाप नहीं है तो भगवती शतक ८ उद्देशा ६ में असंयतिको दान देनेसे एकान्त पाप होना क्यों कहा ? भ्रमविध्वंसनकारने भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ५५ पर इस विषयमें यह लिखा है "मथ अठे तथारूप असं
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