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दोनाधिकारः ।
तथा उपवास करता हुआ यावत् मैं विचरूंगा यह कह कर राजा प्रदेशी जिधरसे आया था वहां चला गया। अनन्तर दूसरे दिन तेजसे प्रज्वलित सूर्योदय होनेपर र.जा प्रदेशीने श्वेताम्बिका प्रभृति सात हजार गांवोंको चार भागों में विभक्त करके एक भाग बल बाहनको दूसरा कोष्ठागारको तीसरा अंतःपुरको दिया और चौथे भागसे अतिविशाल दानशाला बनवा कर उसमें बहुतसे रसोए रख कर उनके द्वारा अशनादि चतुर्वित्र आहार तय्यार कराकर बहुतसे श्रमग माहृन । भिक्षुक और राहगीरोंको भोजन देता हुआ विचरने लगा।
यहां राज प्रश्नीय सूत्रके ऊपर लिखे हुए मूल पाठमें राजा प्रदेशीका दानशाला बना कर श्रमग माहन भिक्षुक आदिको अनुकम्पा दान देना स्पष्ट लिखा हुआ है इससे सिद्ध होता है कि समकितके साथ बारह ब्रत धारण करने वाले श्रावकोंका अन्य तीर्थी को गुरु बुद्धिसे दान न देनेका ही अभिग्रह होता है अनुकम्पा दान देनेका नहीं । अन्यथा आनन्द श्रावकके समान ही अभिग्रह धारी बारह व्रतधारी श्रावक होकर राजा प्रदेशी श्रमग माहन भिक्षुकोंको अनुकम्पा दान क्यों देता ? तथा केशीकुमार श्रमण मुनि, अनुकम्पा दान देनेके लिए राजाकी प्रतिज्ञा सुन कर उसे क्यों नहीं इस कार्यसे रोक दिया ? जिस समय राजा प्रदेशीने मुनिके समक्ष रमणीय बने रहनेकी प्रतिज्ञा करता हुआ दानशाला बनाने की इच्छा प्रकट की थी उस समय कोई याचक वहां दान लेनेके लिए आया भी न था और राजा उसे कुछ देता भी न रहा था ऐसी दशामें केशी कुमार नुनि यदि राजाको अनुकम्पादानमें पाप बता कर रोक देते तो उनको जीतमल जीके सिद्धान्तानुसार अन्तराय भी न होता, क्योंकि जीतमलजीने भ्र० पृ० ५० पर लिखा है कि -"लेतो देतो इसो वर्तमान देखि पाप न कहे उग वेलां पाप कह्यां जे लेवे छै तेहने अन्तराय पडे ते मांटे साधु वर्तमाने मौन राखे" यहां जीतमलजीने वतमानमें ही अनुकम्पा दानके निषेत्रमें अन्तराय माना है दूसरे काल में नहीं इसलिये राजा प्रदेशी को अनुकम्पा दानसे यदि मुनि वारण कर देते तो उस समय उनको अन्तराय भी न होता और राजा प्रदेशी एक नवीन पापसे भी बच जाता परन्तु मुनिने राजाको अनुकम्पा दान देनेसे बारण नहीं किया और यह भी नहीं कहा कि “राजन् ! तुम यह क्या कह रहे हो। अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप है इस कार्यके आचरण करनेसे तुम्हारा अभिप्रह टूट जायगा और तुम फिर अरमणीय हो जाओगे” किन्तु मुनिने अनुकम्पा दान देने की प्रतिज्ञा सुन कर मौन धारण किया था इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप नहीं है तथा अभिग्रह धारी श्रावकोंको अन्यतीर्थीके लिए अनुकम्पा दान देनेका त्याग नहीं होता किन्तु गुरु बुद्धिसे दान देने का त्याग होता
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