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... दानाधिकारः।
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न्तरीयस्यवा दानं ग्रहणं प्रति योलाभः स एकान्तेनास्ति संभवति नास्तीत्येवं न ब या दे कान्तेन, तहान ग्रहण निषेधे दोषोत्पत्ति संभवात् । तथाहि तहान निषेधेऽन्तराय संभवस्तद्वचित्यञ्च, तदानानुमतावप्यधिकरणोद्भवः इत्यतोऽस्ति दानं नास्तिवेत्येवमेकान्तेन न बयान कथं वयादिति दर्शयति-शान्ति: मोक्षः तस्य मार्गः सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्रात्मकस्तमुपबृहयेद् वर्षपेत् । यथा मोक्ष मार्गाभिवृद्धिर्भवति तथा जयादित्यर्थः । एत दुक्त भावति पृष्टः केनचिद य प्रति ग्राहक विषयं निरवद्य मेव ब्रूयादित्येवमादिक मन्यदपि विविध धर्मदेशनावसरे वाच्यम् । तथा चोक्तम् “सावजण वजाणं वयणाणं जोणजाणइ विसेसं" अर्थः -
साधुकी मर्यादामें स्थित हुए मुनिको यह न कहना चाहिये कि अमुक गृहस्थसे दानकी प्राप्ति होगो या न होगी। अथवा दानलाभके विषयमें स्वयूथिक या पत्यूथिक साधुके पूछने पर एकान्त रूपसे यह न कहना चाहिये कि आज तुझको मिक्षा मिलेगी या, न मिलेगी। यदि "आज तुझको भिक्षा न मिलेगो" ऐसा कहे तो अन्तराय होना सम्भव है और भिक्षार्थीके चित्तमें दुःख भी उत्पन्न होगा। तथा "आम तुमको भिक्षा मिलेगी" ऐसा कहने पर पूछने वाले साधुको हर्ष की उत्पत्ति होनेसे अधिकरणादि दोष उत्पन्न होगा इसलिये स्वयूयिक या परयूथिकके पूछने पर भिक्षा लाभके सम्बन्धमें साधुको एकान्तरूपसे कुछ भी न कहना चाहिये। जिस प्रकार ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप मोक्षमार्गकी उन्नति हो वही बात भाषा उमतिके द्वारा कहनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि स्वयूधिक या परयूथिक साधु मुनिसे आकर पूछे कि "आज मुझको भिक्षाका लाम होगा या नहीं ?" तो साधुको मर्यादामें स्थित मुनि एकान्त रूपसे यह न कहे कि आज तुझको भिक्षा न मिलेगी, और यह भी न कहे कि आज तुझको भिक्षा मिलेगी किन्तु विधि निषेध न करके भाषा समतिके द्वारा उत्तर देना चाहिये। इसी प्रकार धर्मोपदेश करते समय भी साधुको निरवद्य भाषा बोलनी चाहिये। कहा है कि जिस साधुको सावध और निरवद्य भाषाका ज्ञान नहीं है वह धर्मोपदेश क्या दे सकता है ? यह ऊपर लिखी हुई गाथाका ट.कानुसार अर्थ है।
यहां तो अनुकम्पादानका कोई प्रसङ्ग नहीं है । भाषासुमतिका यह प्रकरण है इस लिये उक्त गाथामें यह उपदेश किया है कि स्वयूथिक या परयूथिक साधु मुनिसे यदि यह पूछे कि आज मुझको मिक्षाका लाभ होगा या नहीं ? तो मर्यादामें कायम रहनेवाला मुनि एकान्त रूपसे भिक्षाका लाभ और अलाभ कुछ भी न कहे किन्तु भाषा सुमतिके द्वारा उसके प्रश्नका उत्तर देवे अतः इस गाथाका नाम लेकर यह कहना कि "जिस समय दाता हीन दीनको दे रहा हो और लेनेवाला ले रहा हो उसी समयमें साधुको अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप न कहना चाहिये परन्तु उपदेश करते समय एकान्त पाप कह कर अनुकम्पादानका निषेध काना चाहिये” एकांत मिथ्या है।
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