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सद्धर्ममण्डनम् ।
(प्रेरक)
भ्रमबिध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७६ पर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा दशका मूलपाठ लिख कर एक धर्मदानको छोड़ शेष नौ दानोंको अधर्म दानमें कायम करनेके लिये यह लिखते हैं:
"असंयतिने सूझता असूझता अशनादिक ४ दीघां एकान्त पाप भगवती शतक माठ उद्देशा ६ कह्यो ते मांटे ए नौ दानामें धर्मपुण्य मिश्र नहीं छै कोई कहे एक धर्मदान एक अधर्मदान बीजा आठांमें मिश्र छै । केई एकलो पुण्य छै इम कहे तेहनो उत्तरजो वेश्यादिकनो दान अधर्म में थापे विषयरो दोष बतायने तो वीजा आठ पिण विषयमें इज छै" (भ्र० पृ० ७६)
इसका समाधान ? (प्ररूपक)
धर्मदानको छोड़ कर शेप नौ दानोंको अधर्मदानमें गिनना शास्त्रविरुद्ध है । शास्त्रकारने दश ही दानोंको परस्पर विलक्षण और एकमें दूसरेका समावेश न होना बतलाया है। यदि धर्मदानको छोड़ कर शेष नौ ही दान अधर्मदानके भेद होते तो शास्त्रकार यह लिखते कि "दुविहे दाणे पण्णते तंजहा-धम्म दाणे व अधम्मदाणे चेव" यह लिख कर पश्चात् अनुकम्पा आदि दानोंको अधर्मदानमें समावेश कर देते परन्तु ऐसा न कह कर जो दानके दश भेद शास्त्रकारने बतलाये हैं इससे अनुकम्पा आदि दानोंका अधर्मदानसे भेद होना स्पष्ट सिद्ध होता है। दूसरी बात यह है कि इन दश दानोंके गुणानुसार नाम रक्खे गये हैं जिस दानका फल अनुकम्पा है उसका 'अनुकम्पा' नाम रक्खा है और जिसका फल संग्रह ( दीन दुःखीको सहायता देना ) है उसका संग्रह नाम रक्खा है इसी तरह शेष माठ दानोंके भी गुणानुसार ही नाम रक्खे गये है और भीषणजीने भी यह बात मानी है जैसे कि उन्होंने लिखा है “दश दान भगवन्त भाषिया, सूत्र ठाणांग माय । गुण निष्पन्न नाम छै तेहनो, भोलांने खवर न काय" ( पद्य भीषणजी कृत )
इस पद्यमें दश दानोंका गुणानुसार नाम होना स्वयं भीषणजीने स्वीकार किया है ऐसी दशामें धर्मदानको छोड़ कर शेष नौ ही दानों को अधर्मदानमें बताना जीतमलजी का अपने गुरुकी उक्तिसे ही विरुद्ध होता है । जब कि इन दानोके नाम इनके गुणानुसार रक्खे गये हैं तब अनुकम्पादानका गुण अनुकम्पा कहना होगा अनुकम्पा अधर्ममें नहीं है, इसलिये अनुकम्पादान अधर्मदानमें नहीं हो सकता। इसी तरह संग्रह दानका फल संग्रह (दोन दुःखीको सहायता देना) करुणादानका कल करुणा और लज्जा आदि दानों के फल लज्जा आदि हैं। दीन दुःखीको सहायता देना आदि अधर्ममें नहीं है अत: संग्रह
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