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सद्धर्ममण्डनम् ।
पानी आदि देकर मैं प्रसन्न रक्खूंगा तो वह मुझको शास्त्र देनेकी कृपा करेंगे” इस भाव
गुरुकी सेवा भक्ति दान सम्मान आदि करना " काय्यैहेतु विनय" कहलाता है । यह विनय “करिष्यतीति दान” के अन्तर्गत है क्योंकि जो दान प्रत्युपकारकी आशासे दिया जाता है उसी 'करिष्यतीति" दान कहते हैं । साधु भी अपने गुरुको यह दान देकर लोकोपचार विनय करता है । यह दान प्रत्युपकारकी आशासे किये जानेसे 'करिष्यतीति दान" है । जीतमलजीके हिसाब से यह दान भी अधर्ममें ही ठहरता है क्योंकि प्रत्युपकार की आशासे किये जानेके कारण यह दान कथंचित् धर्मदानसे भिन्न है ।
जो दान उपकारी पुरुषको उपकारके बदले में दिया जाता है वह "कृत दान" कहलाता है । साधु भी उपकार के बदले में अपने गुरूको यह दान देकर “कृत प्रति क्रिया" नामक विनय करता है । यह दान उपकारके बदले में दिया जाता है इसलिये कथंचित् धर्मदान से भिन्न है अतः जीतमलजी के हिसाब से इसमें भी पाप ही होना चाहिये। कई मनुष्य मुनिको गर्वसे भी दान देते हैं वह दान दाताका परिणामके अनुसार गवंदान है उस में भी जीतमलजी की प्ररूपणाके अनुसार पाप ही ठहरता है परन्तु शास्त्र प्रमाणसे यह प्ररूपणा मिथ्या सिद्ध होती है क्योंकि लोकोपचार विनय करनेके लिये अपने गुरु को "कृत दान" और "करिष्यतीति दान" करने वाले मुनिको और गर्वसे गुनिको दान देने वाले गृहस्थ को धर्म होता है पाप नहीं होता । अतः एक धर्मदानको छोड़ कर शेष नौ दानों को एकान्त अधर्म में कायम करना अज्ञान है ।
वास्तव में ये दशविध दान, परस्पर एक दूसरे से भिन्न और नामानुसार गुणवाले हैं अतएव ये अलग अलग कहे गये हैं यदि धर्मदानको छोड़ कर शेष नौ दान एकान्त रूपसे अधर्म में ही होते तो इन्हें अधर्म दानसे अलग लिखनेकी कुछ भी आवश्यकता न थी। भीषणजीने अपने पद्यमें स्पष्ट स्वीकार किया है कि इन दानोंके नाम गुणानुसार रक्खे गये हैं इसलिये जैसा इनका नाम है वैसा ही इनका गुण भी है अतः अनुकम्पा आदि नौ दानों को एकांत अधर्म में स्थापन करना अज्ञान है ।
ठाङ्ग सूत्रकी मूलगाथा टीकाके साथ लिख कर इन दश दानोंकी व्याख्या की जाती है । वह गाथा यह है
"दसविहे दाणे पण्णत्ते तंजहा
"अनुकम्पा संग्गहे चैव भए कालुणि एति च लज्जाए गारवेणं च अधम्मे पुण सत्तमें धमेत अमेत्ते काही तीत कर्तति त"
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( ठाणाङ्ग ठाणा १० उद्द ेशा ३ )
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