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सद्धर्ममण्डनम् । "तथा तत्प्रकारं रूपं स्वभावो नेपथ्यादिर्वा यस्यस तथारूपः' (ठाणाङ्ग टीका ठाणा ३ उद्देशा १)
"उचित स्वभावे" "भक्ति दानोचित पात्र" (भगवती शतक ५ उ०५) "दानोचिते" (ठा० ठा० ३ उद्देशा १)
अर्थात् जिसका स्वभाव या वेष भूषा आदि उसी तरहका है वह 'तथा रूप' कहलाता है। जो भक्तिपूर्वक दान देनेके योग्य पात्र समझा जाता है वह तथा रूप कहलाता है।
उस तथा रूपके असंयतिको दान देनेसे श्रमणोपासकको एकान्त पाप होना भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठमें कहा है इसलिये हरिभद्र सूरि और भगवती के टीकाकारका कथन इस मूलपाठके शब्दसे ही निकलता है अत: वह अप्रामाणिक नहीं है।
दूसरी बात यह है कि जहां सब असंयतियोंको बतलाना होता है वहां ‘तहा रूवं" इस पदसे रहित पाठ आता है जैसे भगवती आदि सूत्रोंमें सब असंयतियों को बतानेके लिये यह पाठ आया है
___“जीवेणं भन्ते ! असंजए अविरए अपडिहय पञ्चक्खाय पावकम्मे" इत्यादि पाठों में "तहारूवं" इस पइसे रहित पाठ आया है इसलिये इन पाठोंमें सभी असंयतियों का ग्रहण होता है परन्तु भगवती शतक ८ उद्देशा ६ में “तहा रूवं" इस पदके साथ पाठ आया है इसलिये उसमें सभी असंयतियोंका ग्रहण न होकर अन्य तीर्थियोंके वेष भूषा धारण करने वाले उनके धर्माचार्य धर्म गुरुओंका ही ग्रहण होता है अतएव भगवती सूत्रके टीकाकार और हरिभद्र सूरिने गुरु बुद्धिसे असंयतिको दान देनेसे एकान्त पाप होना बतलाया है अनुकम्पादान देनेसे नहीं। - इस पाठमें "पडिलभमाणे" इस पदके आनेसे भी यही बात सिद्ध होती है। “पडिलभमाणे" इस पदका प्रयोग, स्वतीर्थी या परतीर्थी साधुको दान देने अर्थ में ही होता है गृहस्थको दान देने अर्थ में नहीं होता क्योंकि कहीं भी मूलपाठमें गृहस्थको दान देने अर्थमें “पडिलभमाणे” इस पदका व्यवहार नहीं देखा जाता इसलिये अन्य तीर्थियोंके मान्य पूज्य असंयतियोंको दान देनेका ही फल एकान्त पाप इस पाठमें कहा है सभी असंयतियोंको दान देनेका फल नहीं कहा । यदि कोई कहे कि भगवती शतक ८ उद्देशा ६ का मूल पाठ श्रावकके लिये आया है और श्रावक अन्य तीर्थयोंके गुरुको गुरु बुद्धिसे दान नहीं देते फिर उस दानके फल बतानेकी इस पाठमें क्या आवश्यकता है ? तो इसका उत्तर यह है कि जैसे साधु मैथुन सेवन, रात्रिभोजन आदि पापकार्य नहीं करते तथापि शास्त्रमें साधुको रात्रिभोजन और मैथुन सेवन करनेका प्रायश्चित्त कहा
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