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सद्धममण्डनम् ।
यतिने फासु अफासु सूझतो असूझतो अशनादिक देवे ते श्रावकने एकान्त पाप कह्यो छै”
(भ्र० पृ० ५५) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूल पाठमें तथारूप असंयतिको गुरु बुद्धिसे दान देनेसे एकान्त पाप होना कहा है अनुकम्पादान देनेसे नहीं। टीकाकारने इस विषय को खोल कर लिख दिया है। वह टीका यह है
__"सूत्र त्रयेणाऽपि चानेन मोक्षार्थ मेव यद्दानं तच्चिन्तितम् यत्पुनरनुकम्पादान मौचित्य दान म्वा तन्न चिन्तितम् । निर्जरायास्तत्रानपेक्षत्वात् अनुकम्पौचित्ययोरेव चापेक्षणीयत्वात् । उक्तञ्च मोक्खत्थं जं दाणं तं पइ एसो विही समक्खाऊं अणुकम्पा दाणं पुग जिणेहि न कहिंचि पडिसिद्ध" ___अर्थात् भगवती शतक आठ उद्देशा छः के इन तीन सूत्रोंमें मोक्षके लिये जो दान दिया जाता है उसीका विचार किया गया है अनुकम्पादान और औचित्यदानका नहीं। अनुकम्पादान और औचित्य दानमें अनुकम्पा और औचित्य ही अपेक्षित होते हैं निर्जरा अपेक्षित नहीं होती ( अतः निर्जराकी अपेक्षासे किये जाने वाले मोक्षार्थ दानका इन सूत्रोंमें फल कथन समझना चाहिये ) कहा भी है जो दान मोक्षके निमित्त दिया जाता है उसीका विधान भगवती शतक आठ उद्देशा ६ के तीनों सूत्रोंमें किया है दूसरे दानका नहीं क्योंकि जिनवरोंने अनुकम्पादानका कहीं भी निषेध नहीं किया है। यह ऊपर लिखी हुई टीकाका अर्थ है ।
इसमें टीकाकारने भगवतीशतक ८ उह शा ६ के तीनों मूलपाठोंका तात्पर्य्य बतलाते हुए मोक्षार्थ दानका ही इन पाठोंमें विचार किया जाना बतलाया है अनुकम्पा तथा औचित्य दानका नहीं। तथा हरिभद्र सूरिने भी यही बात कही है। उनका पद्य निम्नलिखित है
"शुद्धवा यदशुद्धवाऽसंयताय प्रदीयते ।
गुरुत्वबुद्धया तत्कर्म वन्ध कृन्नानु कम्पया" अर्थात् शुद्ध, या अशुद्ध जो गुरु बुद्धिसे असंयतिको दिया जाता है वही कमवन्धका कारण है, जो अनुकम्पासे दिया जाता है वह नहीं। यह उक्त पद्यका अर्थ है। इसमें हरिभद्र सूरिने भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठका आशय बतलाते हुए अनुकम्पादानका निषेध नहीं किया जाना स्पष्ट लिखा है । तथा आगे चलकर अनुकम्पादानका शुभ फल बतलाते हुए यह लिखा है
"शुभाशय कर ह्य तदाग्रहच्छेद कारिच । सदभ्युदय सारांग मनुकम्पा प्रसूति च ॥
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