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सद्धर्ममण्डनम् ।
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है इस लिए जो अनुकम्पा दानमें एकान्त पापका उपदेश देकर श्रावकोंसे उसका त्याग कराते हैं वे हीन दीन जीवोंकी जीविकाका उच्छेद करने वाले अज्ञानी हैं।
( बोल ३ )
( प्रेरक )
आपने प्रदेशी राजाका उदाहरण देकर राजप्रश्नीय सूत्र के प्रमाणसे हीन दीन rain अनुकम्पा दान देनेमें पुण्यका सद्भाव बतलाया परन्तु भ्र० कार भ्र० पृ० ७५ पर लिखते है - "वलीराय प्रसेनीमें प्रदेशी दानशाला मंडाई कही छै । राजरा चार भाग करने आप न्यारो होय धर्मे ध्यान करवा लाग्यो । केशी स्वामी वी हुईं ठामें मौन साधी छै पिग इम न कह्यो हे प्रदेशी तीन भागमें तो पाप छै परं चौथो भाग दानशाला से काम तो पुण्यरो हेतु छै । थारो भल्यो मन ऊठो ओतो अच्छो काम करिबो विचारयो इम चौथा भागने सरायो नहीं केशी स्वामी तो वो हुई सावद्य जाणीने मौन साधी छै। मांडे तीन भागरो फल जिसोई चौथो भागरो फल छै " ( ० पृ० ७५ ) इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक )
दानशाला बनवा कर हीन दीन दुःखी जीवोंको दान देने की प्रतिज्ञा सुन कर केशी स्वामीने जो मौन धारण किया इसका तात्पर्य यह नहीं हो सकता कि अनुकम्पा दान एकान्त पापका कार्य्य था । क्योंकि एकान्त पापके कार्य्यकी प्रतिज्ञा सुन कर साधु मौन धारण नहीं करते, उपदेश देकर उसका निषेध करते हैं। साधुके समक्ष यदि कोई हिंसादि कुकर्म करनेका विचार प्रकट करे तो उस समय साधु मौन धारण न करके उस कार्य्यका प्रतिषेध करते हैं । अनुकम्पा दान देना यदि हिंसा आदि की तरह एकान्त पापका कार्य होता तो उस कार्यके लिए प्रदेशीको प्रतिज्ञा करते देख कर मुनि कापि मौन न होते किन्तु धर्मोपदेश देकर उस कार्य्यसे उन्हें अवश्य रोकते । अतः मुनिने राजा प्रदेशीको अनुकम्पा दान देनेकी प्रतिज्ञा करते हुए देख कर निषेध न करके जो मौन धारण किया था इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनुकम्पा दान देना हिंसा आदिकी तरह एकान्त पापका कार्य्य नहीं है किन्तु इससे पुण्य भी होता है । अतएव केशी स्वामीने राजा प्रदेशीको अनुकम्पा दान देनेसे नहीं रोका था किन्तु मौन होकर रहे अतः केशी स्वामीके मौन होनेका अभिप्राय अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप होने की बात बतलाना मूर्खोका कार्य्य है ।
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