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सद्धर्ममण्डनम् ।
भावी लाभके मार्गको रोक देनेसे अन्तराय होना केवल शास्त्रसे ही नहीं प्रत्यक्षसे भी सिद्ध है। जैसे कोई मनुष्य किसी महाजनके दश हजार रुपयोंका ऋगी है उससे कोई यरि ऋग देनेका त्याग करावे तो यह प्रत्यक्षही महाजनके लाभमें अन्तराय देना है। अतः भावी लामके मार्गको रोक देनेसे अन्तराय न मानना शास्त्र और प्रत्यक्ष दोनों से विरुद्ध समझना चाहिये।
(बोल १)
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार आनन्द श्रावकका दाखला देकर अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप बतलाते हैं। जैसे कि भ्र० पृ०५१ पर उन्होंने लिखा है "तथा उपासक दशाङ्ग अध्ययन १ आनन्द श्रावक अभिग्रह धार यो जे हूं अन्यतीर्थीने दान देवू नहीं दिवावं नहीं" इन के कहने का आशय यह है कि हीन दीन दुःखी जीवोंपर दया लाकर दान देनेसे यदि पुण्य होता तो आनन्द श्रावक अन्य तीर्थी को दान न देनेका क्यों अभिग्रह धारण करता ? अतः हीन दीन जीवोंपर दया लाकर दान देना एकान्त पाप है।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
आनन्द श्रावकका उदाहरण देकर अनुकम्पा दानमें पाप बताना अयुक्त है। आनन्द श्रावकने हीन दीन जीवोंपर दया लाकर दान न देनेका अभिप्रह नहीं लिया था। क्योंकि हीन दीन प्राणियोंपर दया लाकर उन्हें दान देना श्रावकोंके धर्मसे विरुद्ध नहीं है किन्तु यह कार्य श्रावक धर्मको पुष्ट करने वाला है इसलिए आनन्दने अनुकम्पा दान का त्याग नहीं किया था।
सर्वज्ञ भाषित धर्मसे भिन्न धर्मकी स्थापना करनेवाले अज्ञानी चरक परिव्राजक आदिको वन्दन नमस्कार काना, तथा भक्ति भाव से आहार देका उनकी पूजा प्रतिष्ठा करना, एवं उनके वन्दनीय पूजनीय सरागी देवताओंको वन्दन नमस्कार करना, यह सब कार्य श्रावकोंके धर्मसे विरुद्ध और मिथ्यात्वके पोषक हैं इसलिए इन्हों कार्योके न करने का आनन्दने अभिग्रह लिया था अनुकम्पा लाकर होन दोन जीवोंको दान न देने का नहीं। अतः आनन्द का नाम लेकर अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप कहना मूर्यो का कार्य है।
उपासक दशांगका मूल पाठ लिख कर आनन्दके अभिग्रहका विवेचन किया जाता है। वह पाठ यह है
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