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दानाधिकारः ।
तएण से आनंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पञ्चाणुव्वइयं सत्तसिक्खा व्वइयं दुवाल सविह सावय धम्मं पडिवज्जह पडिवज्जइत्ता समणं भगवं महावीर वन्दइ नमसइत्ता एवं वयासो नो खलुमे कप्पइ अज्जप्पभिइ अन्नउत्थिएवा अन्नउस्थिय देवयाणिवा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणिवा वंदितएवा नमंसित्त एवा पुचि अणालणं आलवित्त एवा संल वित्तएवा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमंवा साइमंवा दाऊ व्वा अणुष्प दाऊ वा नन्नत्थ रायाभियोगेणं गणाभियोगेणं वलाभियोगेणं देवयाभियोगेणं गुरुनिग्गणं वित्ति कन्तारेणं । कप्पइमे समणे निग्गंथे फासुएणं एस णिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणंवत्थ परिग्गहपाय पुच्छणेणं पीढ़फलग सिज्जा संथारएणं ओसहभेषज्जेणं पडिलाभे माणस्स विहरित्तएत्तिकट्टु इमं एयारूवं अभिग्गह पडिगिहूणहत्ता पासिणाई पुच्छइत्ता अट्ठाई आदियइ
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( उपासक दशाङ्ग अ० १ )
इसके अनन्तर आनन्द गाथा पतिने श्रमण भगवान् महावीर स्वामीसे पांच अनुव्रत सात शिक्षा व्रत द्वादश विध श्रावक धर्मको स्वीकार करके भगवान् महावीर स्वामीको धन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा कि हे भगवन् ! अन्य यूथिक, यानी सर्वज्ञ भाषित धर्मसे भिन्न धर्मकी स्थापना करनेवाले अज्ञानी चरक परिब्राजक आदि तथा उनसे स्वीकार किये हुए देवताओंको वन्दन नमस्कार करना और उनके बोले बिना पहले ही उनसे आलाप संलाप करना, उन्हें एक वार या अनेक वार अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य देना आजसे मुझको नहीं कल्पता । परन्तु राजाभियोग, गाभियोग, वलाभियोग, देवाभियोग, गुरुनिग्रह और वृत्तिकान्तारको छोड़ कर यह बात समझनी चाहिए ।
श्रमण निग्रंथोंको प्रामुक ऐषणिक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र परिग्रह, पादप्रोज्च्छन, पीठ, फलक, शय्या, संथारा, और औषध भेषज आदि देते हुए विचरना आजसे मुझको कल्पता है । इस प्रकारका अभिग्रह धारण करके आनन्द श्रावकने भगवान्से अपने प्रश्नोंका उत्तर पूछा और भगवान् से कहे हुए उत्तरको स्वीकार किया । यह ऊपर लिखे मूल पाठका भावार्थ है 1
नोट - इस पाठमें साम्प्रदायिक खींचातानीके कारण बहुत भेद पाया जाता है इसलिए एसियाटिक सोसाइटी कलकत्तामें छपी हुई पुस्तकसे लेकर यह पाठ लिखा गया है। मिष्पक्ष अंग्रेज विवानने उक्त पुस्तक छपाई है और इसी पाठको यथार्थ माना है ।
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