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दानाधिकारः।
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हैं उसी तरह वर्तमानमें अनुकम्पादान छुडानेमें भी धर्म क्यों नहीं मानते ? यदि आप यह कहें कि अनुकम्पा दानके त्याग करानेसे वर्तमान कालमें लेने के लिए उपस्थित हीन दीन जीवोंकी जीविकामें वाधा पड़ती है पर कसाईसे हिंसा छुड़ानेमें किसीकी जीविका का नाश नहीं होता इसलिये हम वर्तमान कालमें हिंसाका निषेध करते हैं अनुकम्पा दान का निषेध नहीं करते तो यह मिथ्या है जिस मांसाहारीको मांस देनेके लिये कसाई हिंसा करता है उसके लाभका अन्तराय कसाईसे हिंसा छुड़ानेमें भी हो सकता है ऐसी दशामें आपके मतमें उपदेश देकर कसाईसे हिंसा भी नहीं छुड़ानी चाहिए। परन्तु जैसे हिंसा करना अधर्म है उसके छुड़ानेमें कोई अन्तराय नहीं होता उसी तरह अनुकम्पा दान भी आपके मतमें अधर्म है अतः वर्तमानमें भी उसका त्याग कराने पर आपको अन्तराय नहीं मानना चाहिए। परन्तु वर्तमान में अनुकाग दानके निषेध करनेमें आप भी अन्तरायका पाप होना मानते हैं इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनुकम्पा दान, वेश्या चोर जार हिंसक प्राणियोंको व्यभिचार चोरी आदिके लिये दिया जानेवाला अधर्म दान के समान एकान्त पापका कारण नहीं है अतएव अनुकम्पा दानके निषेध करनेसे अन्तराय लगना कहा है अधर्म दानके निषेध करनेसे नहीं कहा है।
दशवैकालिक सूत्रमें अनुकम्पा दानके अधिकारियोंको मिक्षार्थ गृहस्थके द्वारपर खड़े देख कर उन्हें अन्तराय न देनेके लिए साधुको वहांसे हट जाना कहा है परन्तु वेश्या आदिको व्यभिचारार्थ दान लेनेके लिये गृहस्थके द्वारपर खड़ा देख कर साधुको टल जाना नहीं कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि पुण्य कार्यमें वाधा पहुंचानेसे ही अन्तराय होता है एकान्त पापमें वाधा देनेसे अन्तराय नहीं होता वह दशवैकालिक सूत्रकी गाथा यह है--
"समणं माहणंवापि किविणंवा वणीमगं उवसंतमत्तं भत्तट्ठा पाणठाएवसंजए तमइक्कमित्तुनपविसे नविचि? चक्खुगोयरे एगन्तमवक्कमित्ता तत्थचिट्ठिजसंजए
. (दश वै० अ० ५ उ० २ गाथा १०-११) अर्थात् श्रमण माहन दरिद्र और वनीपकको भिक्षार्थ गृहस्थके द्वार पर गये हुए या जाते हुए देख कर उनको उल्लङ्घन करके साधु भिक्षार्थ गृहस्थके मकानमें प्रवेश न करे और गृहस्वामीके दृष्टिगोचर में भी न स्थित रहे किन्तु जहां गृहस्थकी दृष्टि न पड़े वहां एकान्तमें जाकर हरे।
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