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दानाधिकारः । दूसरा रुपये लेकर व्यभिचारार्थ वेश्याको देने जा रहा है, तीसरा स्वयं खाने और दूसरे को मांस खिलाने के लिये छुरी लेकर बकरा मारने जा रहा है चौथा अपने परिवार के पोषणके लिये चोरी करने जाता है इन सभी पुरुषोंसे मार्ग में यदि साधु मिलें तो वह किसको एकांत पापकी शिक्षा देकर त्याग करावें और किसके विषयमें मौन रहें ? यदि कहो कि हाथमें रोटी लेकर भिक्षुकोंको देनेके लिये धर्मशालामें जाते हुए पुरुषके विषयमें साधु मौन रहें और शेष सभी लोगोंको एकान्त पापका उपदेश देकर उनसे चोरी व्यभिचार और हिंसाका त्याग करावें तो यहां यह प्रश्न होता है कि तुम्हारे मतमें अनुकम्पा दान देना भी तो चोरी जारी और हिंसाके समान ही एकान्त पाप है फिर अनुकम्पादान देनेके लिये जाने वालेके विषयमें साधु क्यों मौन रहता है ? तुम्हारे हिसाबसे उसको भी त्याग करा देना चाहिये । परन्तु तुम लोग भी अनुकम्पा दानके विषयमें वर्तमानमें मौन रह जाते हो उसका त्याग नहीं कराते इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनुकम्पादान चोरी जारी और हिंसा आदिकी तरह एकान्त पापका काय्यं नहीं किंतु पुण्यका भी कारण है ।
कई अनुकम्पादानके विरोधी, ऐसा कुतर्क करते हैं कि “अनुकम्पादानमें यदि पुण्य है तो श्रावकोंको सामायक और पोषा न कराना चाहिये क्योंकि सामायक और पोषामें बैठा हुआ श्रावक अनुकम्पादान नहीं देता इसलिये हीन दीन जीवोंकी जीविकामें वाधा पड़ती है" जैसे कि भ्रम० कारने लिखा है "वली कोईने सामायक पोषो करावणो नहीं सामायक पोसामें कोईने देवे नहीं यदपिण इहां अन्तराय कर्म बंधे छै" (भ्र० पृ० ५१)
इसका उत्तर यह है-श्रावक सामायक और पोषा विशिष्ट गुणकी प्राप्तिके लिये करते हैं न कि अनुकम्पादानसे अपनेको बचानेके लिए। अनुकम्पादान देना सामान्य गुण है और सामायक पोषा करना विशिष्ट गुण है उस विशिष्ट गुणकी प्राप्तिके समय सामान्य गुणका त्याग होना स्वाभाविक है। जैसे दिशाकी मर्यादा करने वाला जो श्रावक घरसे बाहर जानेका त्याग किया हुआ है वह मुनिराजके सम्मुख भी उनके स्वागतार्थ नहीं जाता इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि मुनिराजके सम्मुख जाना छोड़ने के लिए इसने दिशाकी मर्यादा की है। तथा मुनिराजके स्वागतार्थ उनके सम्मुख जाना एकान्त पाप भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उस श्रावकने विशिष्ट गुग की प्राप्तिके लिये दिशाकी मर्यादा की है मुनिराजके सम्मुख जानेको एकान्त पाप जान कर उसे छोड़नेके आशयसे नहीं उसी तरह सामायक और पोषा करने वाला श्रावक एकांत पाप जान कर अनुकम्पा दान देना नहीं छोड़ता है किन्तु विशिष्ट गुगका उपार्जन करते समय सामान्य गुण उससे छूट जाता है अतः अनुकम्पादानको एकान्त पाप जान कर श्रावक सामायक और पोषामें उसका त्याग करते हैं यह कहनेवाले अविवेकी हैं।
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