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मिथ्यात्विक्रियाधिकारः ।
यहां गोशालक मतानुयायियोंकी कष्ट कर तपस्याका वर्णन करके उन तपस्याजिनाज्ञामें न होने से उन्हें जिनाज्ञाका आराधक न होना कहा है । यदि गोशालक मतानुयायियोंकी तपस्या जिनाज्ञामें होती तो उन्हें इस पाठमें परलोकका अनाराधक कहते । तथा इनकी जिव्हेन्द्रिय प्रति संलीनीता यदि जिन आज्ञामें होती तो वे जिनाज्ञाके अनाराधक न कहे जाते । अतः गोशालक मतकी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनता का वीतराग मतकी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनवासे भिन्न होना स्पष्ट प्रमाणित होता है । तथापि शब्द की तुल्यता देख कर यदि कोई गोशालक मतानुयायियोंकी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनताको जिन आज्ञामें बतावे तो उसे इनकी भिक्षाचरी और प्रब्रज्याको भी जिन आज्ञामें ही मानना चाहिए क्योंकि इनकी भिक्षाचरी और प्रब्रज्या भी जिन मार्गकी भिक्षाचरी और प्रव्रज्यासे शब्दतः तुल्य हैं । यदि शब्दतः तुल्य होने पर भी गोशालक मतानुयायियोंकी भिक्षाचरी और प्रब्रज्याको जिन आज्ञामें नहीं मातते तो इनकी जिव्हेन्द्रिय प्रति संलीनता को भी आज्ञामें नहीं मानना चाहिये अतः गोशालक मतानुयायियोंकी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनताको वीतरागकी आज्ञामें ठहराकर मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको जिन आज्ञामें बताना एकान्त मिथ्या है।
( बोल ३७ वां )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृ० ४४ पर प्रश्नव्याकरण सूत्रके दूसरे संवरद्वारका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
" इहां को सत्य बचन साधुने आदरवा योग्य छै । ते साथ अनेक पाषण्डी अन्य दर्शनी पिण आदरयो कह्यो, ते सत्य लोकमें सारभूत कह्यो । सत्य महासमुद्र की . पिण गम्भीर को मेरुथकी स्थिर कह्यो एहवा भगवन्ते सत्यने वखाण्यो ते सत्यने अन्य दर्शनी पण धार यो तो ते सत्यने खोटो अशुद्ध किम हनी श्रद्धा ऊधी छै पिण निरवद्य सत्य श्रीवीतरागे सरायो ते आज्ञा बाहरे नहीं "
कहिए आज्ञा बाहरे कहे तो
( भ्रम० पृ० ४४ ),
इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक)
प्रश्न व्याकरण सूत्रका वह मूलपाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है । वह पाठ यह है—
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