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मिथ्यात्वक्रियाधिकारः ।
इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि प्रकृति भद्रकता विनीतता और अमात्सय्ये आदि गुण यदि मिथ्यात्व और अज्ञानके साथ हों तो वे जिन आज्ञामें नहीं होते । अतः अकाम निर्जरा, बालतपस्या, और मिथ्यात्व तथा अज्ञानयुक्त प्रकृतिभद्रकता, विनीतता, और अमात्य आदि गुणों को वीतरागको आज्ञामें बताना उवाई सूत्रसे विरुद्ध है ।
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इसी तरह भ्रमविध्वंसन कारने जो यह कुतर्क किया है कि बालतपस्या और अकाम निर्जरा जिन आज्ञामें न होती तो सराग संयम और संयमासंयमके साथ क्यों कही जातीं, यह भी अयुक्त है । जो वीतराग की आज्ञामें नहीं है वह वीतरागकी आज्ञामें होने वाले पदार्थ के साथ न कहा जाय ऐसा कोई शास्त्रीय नियम नहीं है। ठाणाङ्ग सूत्रके चौथे ठाणे में धर्म ध्यान और शुकु ध्यानके साथ रौद्र ध्यान भी कहा है । यदि आज्ञामें होनेवाले पदार्थ के साथ आज्ञा बाहरके पदार्थ न कहे जाते तो धर्म्मध्यान और शुक्लध्यानके साथ रौद्र ध्यान क्यों कहा गया है ? अतः आज्ञामें होनेसे ही अकाम निर्जरा और बालतपस्याका सराग संयम और संयमासंयमके साथ भगवतीके पाठमें कथन बतलाना मिथ्या है। भगवतीके मूलपाठ अकामनिर्जरा और बालतपस्या स्वर्ग, प्राप्तिके कारण होनेसे सराग संयम और संयम संयमके साथ कही गयी हैं आज्ञामें होनेसे नहीं । अतः भगaath मूलपाठका नाम लेकर अकाम निर्जरा और बाल तपस्याको आशामें व्हरान्स मिथ्या है।
बोल ३६ वां )
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( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४३ पर ठाणाङ्ग सूत्र ठांणा ४ उद्देशा २ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
"अथ गोशालारे स्थविर एहवा तपना करणहार ह्या छै । उग्र तप, घोर तप, सनत्याग जिव्हेन्द्रिय वंश कीधी । तेहनी खोटी श्रद्धा अशुद्ध है पिण एतप अशुद्ध नहीं तप तो शुद्ध छै आज्ञा मांहि छै । ए जिव्हेन्द्रिय प्रति संलीनता तो भगवन्ते बारह भेद निर्जराना का हमें कही छै । उचाईमें प्रतिसंलीनतारा चार भेद किया । इन्द्रिय प्रति संलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसंलीनता, विविक्त शयनासनसेवणिया । अने इन्द्रिय प्रतिसंलीनता ना ५ भेदामें रसइन्द्रिय प्रतिसंलीनता निर्जराना बाहर भेद चाल्या तेमध्ये कही छै । ते निर्जराने आज्ञा बाहिरे किम कहिए "
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( ० पृ० ४४ )
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