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सद्धर्ममण्डनम् । "अनेग पासण्ड परिग्गहियं जं तिलोकम्मिसारभूयं गंभीरतरं महासमुद्दाओ थिरतर मेरुपव्व आओ"
(प्रश्न व्याकरण सम्बर द्वार २) इसका अर्थ यह है
सत्यरूप महाव्रतको विविध व्रतधारियोंने स्वीकार किया है यह महासमुद्रसे भी गम्भीर मेरु पर्वतसे भी अधिक स्थिर और तीन लोकमें सारभूत है। - यहां मूलपाठमें जो “अनेग पाषण्ड परिग्गहियं ” पाठ आया है इसका अर्थ टीकाकारने इस प्रकार किया है
"अनेक पाषण्डिपरिगृहीतं नानाविध व्रतिभि रङ्गी कृतम्" अर्थात् अनेक प्रकार के व्रतधारियोंसे स्वीकार किया हुआ व्रतका नाम पाषाण्ड है और वह व्रत जिसमें हो उसे "पाषण्डी” कहते हैं। उन पाषण्डियोंसे ग्रहण किए हुए होनेसे सत्य व्रत “अनेक पाषण्डि परिगृहीत" कहा गया है। यद्यपि लोकमें पाषण्डी शब्द दाम्भिक अर्थमें भी आता है तथापि उक्त पाठमें व्रतधारी अर्थमें ही आया है दाम्भिक अर्थमें नहीं। जैन शास्त्रमें पाषण्ड शब्दका व्रतधारी अर्थ भी होता है। दशवैकालिक सूत्र अध्याय २ नियुक्ति १५८ की टीकामें पापण्ड शब्दका अर्थ यों किया है:
पाषण्डं ब्रतमित्याहुस्तद्यस्यास्त्यमलंभुवि। सपाषण्डी वदन्त्यन्ये कर्मपाश विनिर्गतः”
अर्थात् पाषण्ड नाम व्रतका है वह जिसका निर्मल है उस कर्मबन्धनसे विनिमुक्त पुरुषको पाषण्डी कहते हैं।
यहां टीकाकारने पाषण्ड शब्दका व्रत अर्थ बतलाया है और दशबैकालिक सूत्रकी नियुक्तिमें श्रमण निग्रन्थोंका 'पाषण्ड' नाम कहा है वह नियुक्तिकी गाथा यह है. " पब्बईए अणगारे पासण्डे चरग ताबसे मिक्खू परिवाइए य समणे निग्गंथे सञ्जए मुत्ते"
अर्थात प्रवजित, अनगार, पाषण्ड, चरक, तापस, भिक्षु परिव्राजक, श्रमण, निग्रंथ, संयत और मुक्त ये सब श्रमण निग्रन्थोंके नाम हैं।
इस नियुक्तिमें श्रमणनिप्रन्थोंका नाम “पाषण्ड" कहा है उपासकदशांग सूत्रके प्रथम अध्ययनमें और आवश्यक सूत्रमें सम्यक्त्वका अतिचार बतलानेके लिये यह पाठ आया है “पर पासण्डपसंसा परपासंड संत्थव" इसका अर्थ टीकाकारने यह किया है:
"सवज्ञ प्रणीत पाषण्ड व्यतिरिक्तानां प्रशंसा प्रशंसनं स्तुतिरित्पर्थः ।
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