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मिथ्याविक्रियाधिकारः ।
सूर्य्याभिके अभियोगिया देवताओंके सम्यग्दृष्टि होनेमें क्या बाधा है। इसके अतिरिक्त यह प्रश्न भी उठते हैं कि आन्तरिक भक्तिशून्यं द्रव्यरूप वन्दना भगवान् की आज्ञामें है या भक्तिपूर्वकं भावरूप वन्दना ही आज्ञामें है ? यदि भावशून्य द्रव्यवन्दना भी भयवानकी आज्ञामें हो तो ऐसी वन्दना अभव्य जीव भी करते हैं इसलिए वे भी वीतरागकी आज्ञाराधक होकर मोक्ष के अधिकारी हो सकते हैं परन्तु ऐसा कदापि नहीं होता अभव्य ata मोक्षमार्गका आराधक त्रिकालमें भी नहीं है अतः भक्तिपूर्वक भावरूप वन्दनको ही आज्ञामें मानना चाहिये ऐसा वन्दन नमस्कार मिथ्यादृष्टियोंका नहीं होता क्योंकि मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्वके कारण द्रव्यरूप क्रिया ही करता है भावरूप नहीं। सूर्य्याभके अभियोगिया देवताओंका वन्दन नमस्कार सम्यग्ज्ञानपूर्वक भावरूप था अतएव उसे भगवान्
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आज्ञा अन्दर बतलाया यदि वह द्रव्यरूप होता तो कदापि भगवान् आज्ञामें नहीं : कहते अतः सम्यक् क्रियाका अनुष्ठान करने वाले सूर्य्याभिके अभियोगिया देवता सम्यग्दृष्टि थे मिथ्यादृष्टि नहीं उनका उदाहरण देकर मिथ्यादृष्टिके भावशून्य द्रव्यरूप वन्दन नमस्कारको वीतरागकी आज्ञामें बताना अज्ञान मूलक है ।
(बोल ३३ वां समाप्त )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३७ पर भगवती सूत्र शतक २ उद्दे शां. १ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि " अर्थ अ कह्यो है गोतम ! तांहरा धर्माचार्य भगवान् महावीर स्वामीने बांदा यावत् सेवा करा । तिवारे गोतम बोल्या जिम सुख हुवे तिम करो हे देवानु प्रिय, पिणप्रतिवन्ध मत करो । इसी शीघ्र आज्ञा वन्दनानीदीधी ते वन्दना रूप करणी प्रथम गुणठाणा रो धगी करे M आज्ञा बाहिरे किम कहिये ।" (भ्र० पृ० ३७ ) । इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक )
भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायियोंसे पूछना चाहिये कि गोतम स्वामीने स्कन्दुक जीको भक्ति भाव के साथ सम्यग्ज्ञानपूर्वक तीर्थंकरको वन्दना करने की आज्ञा दी थी या भावरहित द्रव्य वन्दना करने की आज्ञा दी थी ? यदि भक्तिभाव के साथ सम्यग्ज्ञानपूर्वक वन्दना करने की आज्ञा दी थी तो मिध्यादृष्टिका वन्दन नमस्कार उनकी आज्ञा कैसे हो सकता है ? क्योंकि मिध्यादृष्टिका वन्दन नमस्कार भक्तिभाव रहित और मिथ्यात्व के साथ होता है भक्तिभाव के साथ सम्यग्ज्ञान पूर्वक नहीं । यदि भक्तिभावरहित द्रव्य वन्दना की आज्ञा दिया जाना कहो तो यह अयुक्त है साधु कदापि किसीको
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