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सद्धममण्डनम् ।
और वेदनासे ग्रस्त इन प्राणियोंके लिए जिनवरोंके वाक्यसे अतिरिक्त कोई दूसरा शरण नहीं है ऐसी भावना करना है। चौथी 'संसरणानुप्रेक्षा' है। संसारके प्राणी सदा अपने अपने कर्मानुसार चारों गतियोंमें जाते रहते हैं वही स्त्री वेदी जीव, किसी भवमें माता होकर दूसरे भवमें उसी जीवकी भगिनी हो जाता है और फिर अन्य भवमें भार्या एवं किसी भवमें पुत्री हो जाता है । इसी तरह कभी पुत्र ही पिता और पिता पुत्र हो जाता है इस प्रकार संसारके सभी जीव एक भवको छोड़ कर दूसरे भवमें जाते रहते हैं ऐसी भावना करनेको 'संसरणानुप्रेक्षा' कहते हैं । उक्त चतुर्विध अनुप्रेक्षाएं धर्मध्यान होनेके पश्चात् होती हैं और धर्मध्यान श्रुत तथा वारित्रके साथ होता है मिथ्यादृष्टि में श्रुत और चारित्र नहीं होता इसलिये धर्मध्यान भी उसमें नहीं होता और धर्मध्यानके न होनेसे मिथ्यादृष्टिमें चतुर्विध अनुप्र क्षाएं भी नहीं होतीं अत: मिथ्यादृष्टिके अन्दर धर्मध्यानके पश्चात् होने वाली अनित्य जागरणाका सद्भाव बताना शास्त्रविरुद्ध है। - यदि कोई कहे कि सोमिल ऋषि और तामली बाल तपस्वीकी अनित्य जागरणा शास्त्रमें कही है इसलिए मिथ्यादृष्टिमें अनित्य जागरणा होती है। तो इसका उत्तर यह है कि सोमिल ऋषि और तामली बाल तपस्वीमें जो अनित्य जागरणा शास्त्रमें कही है वह धर्मध्यानके पश्चात होने वाली सम्यग्दृष्टियोंकी अनित्य जागरणा नहीं किन्तु मिथ्यात्वके साथ होने वाली दूसरी अनित्य जागरणा है । जैसे शास्त्रमें मिथ्यादृष्टिकी प्रव्रज्या कही है
और सम्यग्दृष्टिकी प्रव्रज्या भी कही है परन्तु वे दोनों प्रत्रज्याएं एक नहीं भिन्न भिन्न हैं। सम्यग्दृष्टिकी प्रव्रज्या, सम्यग्रूप और मिथ्यादृष्टिकी मिथ्यारूप है उसी तरह मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिकी अनित्य जागरणाएं भी भिन्न भिन्न हैं एक नहीं हैं। सम्यग्दृष्टिकी अनित्य जागरणा धर्मध्यानके अन्तर्गत होनेसे वीतरागकी आज्ञामें है और मिथ्यादृष्टिकी धर्मध्यानसे वहिभूत और अज्ञानपूर्वक होनेसे वीतरागकी आज्ञामें नहीं है। अतः सोमिल ऋषि और तामली बाल तपस्वीकी अनित्य जागरणाको धर्मध्यानमें ठहरा कर वीतराग की आज्ञामें बताना एकान्त मिथ्या है। . शास्त्रमें मिथ्यादृष्टिकी प्रत्रज्या भी कही है वह पाठ यह है-“पव्वजाए पव्वइत्तए” यह भगवती शतक ३ उद्देशा १ में तामली तापसकी प्रव्रज्याके लिये पाठ आया है। इस पाठमें तामली तापसको प्रव्रज्या धारण करना कहा है परन्तु यह प्रव्रज्या मिथ्यात्वके साथ होनेसे वीतरागकी आज्ञामें नहीं मानी जाती उसी तरह मिथ्यात्वके साथ होने से तामली तापसकी अनित्य जागरणा भी आज्ञामें नहीं मानी जा सकती तथापि शब्द की तुल्यता देख कर यदि कोई हठी तामली तापसकी अनित्य जागरणाको जिन आज्ञामें ठहरावे तो उसे तामली तापसकी प्रव्रज्या भी जिन आज्ञामें मान लेनी चाहिये । यदि
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