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सद्धर्ममण्डनम् ।
हम्मे कप्पे उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे । विराहिय संजमासंजमाणं जहपणेणं भुवणवासीसु उक्कोसेणं जोइसिएसु।
( भगवती श० १ उद्देशा २) अर्थ
संयमकी विराधना नहीं करने वाले आराधक साधु यदि देवलोकमें उत्पन्न होवें तो जघन्य प्रथम स्वर्ग सौधर्म कल्पमें और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध नामक विमानमें उत्पन्न होते हैं। तथा संयम की घिराधना करने वाले विराधक साधु यदि देवलोकमें उत्पन्न होवें तो जघन्य भुवनवासी और उत्कृष्ट सौधर्म कल्प प्रथम स्वर्गके देवता होते हैं। एवं अतिचार राहत अपने ब्रतकी आराधना करने वाले आराधक श्रावक देवलोकमें उत्पन्न हों तो जवन्य प्रथम स्वा सौवर्म कल्प और उत्कृष्ट अच्युत कल्प यानी बारहवें वन में उत्पन्न होते हैं। तथा विरावक श्रावक यदि देवलोकमें उत्पन्न होवें तो जवन्य भुवनवासी और उत्कृष्ट ज्योतिष्को उत्पन्न होते हैं। यह मूलपाठका अर्थ है।
इसमें विराधक श्रावकको जघन्य भुवनवासी और उत्कृष्ट ज्योतिष्कमें उत्पन्न होना कहा है। यदि सभी क्रियावादी एक वैमानिक देवकी ही आयु बांधते तो इस मूल पाठमें विराधक श्रावकको जघन्य भुवनवासी और उत्कृष्ट ज्योतिष्कमें जाना क्यों कहा जाता ? क्योंकि विराधक श्रावक भी क्रियावादी ही है अक्रियावादी नहीं है। अत: निश्चित होता है कि सभी क्रियावादी मनुष्य और तिर्साच एक वैमानिककी ही आयु नहीं बांधते किन्तु सामान्य क्रियावादी मनुष्य और तिय्यं च अपने अपने कर्मानुसार दूसरे भवों में भी जाते हैं। अतः भगवती शतक ३० उद्देशा १ के मूलपाठका नाम लेकर सभी क्रियावादियोंको एक वैमानिकका ही आयुवन्ध बतलाना मिथ्या है । जब कि क्रियावादी मनुष्य और तिर्यकच वैमानिकके सिवाय दूसरे की भी आयु बांधते हैं तब मनुष्य का आयुबंध होना देख कर हाथी और सुमुखगाथापतिको मिथ्यादृष्टि कहना मिथ्याहष्टियोंका कार्य समझना चाहिये।
(बोल १९ वां समाप्त) (प्ररूपक)
सामान्य क्रियावादी मनुष्य और तिय्यञ्च वैमानिक देवके सिवाय दूसरे भवमें भी जाते हैं इसका प्रमाण और भी दिया जाता है
भगवती शतक ८ उद्देशा १० के मूलपाठमें जघन्य ज्ञान और जघन्य दर्शनाराधनाका फल जघन्य तीन और उत्कृष्ट सात आठ भवसे मोक्ष जाना बतलाया है इसका अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकारने लिखा है कि जघन्य तीन और उत्कृष्ट सात आठ भवोंमें जो यहां मोक्ष जाना कहा है वह चारित्राराधनाके सहित जघन्यज्ञान और जघन्य
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