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सद्धममण्डनम् । यदि कोई कहे कि मिथ्यादर्शन लब्धि, क्षयोपशमसे उत्पन्न होती है तो उससे कर्मवन्ध क्यों होता है ? तो इसका उत्तर यह है कि क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाले पदार्थ भी कर्मबन्धके कारण होते हैं। जैसे कि बालवीर्य लब्धि क्षयोपशमसे ही उत्पन्न होती है पर वह सांसारिक आरम्भादि कार्यो में प्रयुक्त होनेसे कर्मबन्धका कारण होती है उसी तरह अज्ञान और मिथ्यादर्शन क्षयोपशमसे उत्पन्न होकर भी विपरीत कार्यों में लगे हुए होनेसे कर्मवन्धके ही कारण होते हैं अतः जो लोग यह कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि, (मिथ्यादर्शन ) क्षयोपशमभावमें है और क्षयोपशमभाव कर्मवन्धका कारण नहीं होता इसलिये मिथ्यादृष्टि गुण स्थान वीतरागकी आज्ञामें है वे मिथ्यावादी हैं ।
[बोल २७ वां समाप्त]
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३१ के ऊपर भगवती सूत्र शतक ९ उद्देशा १ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं—“अथ इहां असोच्चा केवलीने अधिकारे इम का-जे कोई वालतपस्वी साधु श्रावक पासे धर्मसुण्या बिना बेले वेले तप करे, सूर्य साहमी आतापना लेवे ते प्रकृति भद्रिक विनीत उपशान्त स्वभावे पतला क्रोध, मान, माया, लोभ, मृदुकोमल अहङ्कार रहित एहवा गुण कह्या ए गुण शुद्ध छै के अशुद्ध छ, ए गुण निरवद्य छै के सावध छै” (भ्रम० पृ. ३२) . इनके कहनेका तात्पर्य यह है कि असोच्चा केवलीके अधिकारमें उक्त बाल तपस्वी के प्रकृति भद्रकतादिक गुण और तपस्या वीतरागकी आज्ञामें कही है आज्ञा बाहर नहीं । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
__ भगवती सूत्र शतक ९ उद्देशा १ का मूलपाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह हैं
"तस्सण छ? छ?णं अणिक्खित्रोणं तवोपकम्मेणं उड वाहाओ पगिझिय सूराभिमुहस्स आयावण भूमिय आयावेमाण्णस्स पगहभद्दयाए पगइउवसन्तयाए पगइपनणुकोह माण माया लोभयाए मिउमद्दव सम्पन्नयाए अल्लीणयाए भद्दय ए विणोययाए अन्नया कयाई सुभेणं अज्झवसाएणं सुभेणं परिणामेणं लेस्साहिं विसुज्झमाणोहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह मग्गणं गवसणं करेमाणस्स विभ'गे नामं अन्नाणे समुपजइ
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