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मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। . .. इसका अर्थ इस प्रकार है- .
(प्रश्न ) हे भगवन् ! कृष्णलेश्यासे लेकर यावत् शुक्ललेश्यावाले जोव, कृष्णलेशी नरक योनिमें क्या उत्पन्न होते हैं ?
(उत्तर) हां होते हैं। (प्रश्न) ऐसा क्यों होता है ?
(उत्तर) लेश्या स्थानके संक्लिश्यमान होने पर जीवको कृष्णलेश्याका परिणाम होता है और वे कृष्णलेशी होकर कृष्णलेश्या घाली नरक योनिमें उत्पन्न होते हैं।
हे भगवन् ! कृष्णलेश्यासे लेकर यावत् शुक्ल लेश्या घाले जीप, नीललेशी होकर नील लेश्यावाली नरक योनिमें क्या उत्पन्न होते हैं ?
(उत्तर) हां गोतम ! होते हैं। (प्रश्न ) ऐसा क्यों होता है ? |
(उत्तर) लेश्या स्थानके संक्लिश्यमान और विशुद्ध होनेसे जीवोंको नील लेश्याका परिणाम होता है और वे नीललेशी होकर नील लेश्यावाली नरकयोनिमें उत्पन्न होते हैं।
इस मूलपाठमें कृष्ण लेश्याकी अपेक्षा नील लेश्याको विशुद्ध कहा है तो भी वह वीतरागकी आज्ञामें नहीं है उसी तरह भगवती सूत्र शतक ९ उद्देशा १ के मूलपाठमें कही हुई बाल तपस्वीकी विशुद्ध लेश्या भी वीतगगकी आज्ञामें नहीं है। अत: बाल तपस्वीकी विशुद्ध लेश्या और उसके मिथ्यात्व युक्त प्रकृति भद्रकता आदि गुणोंको वीतरागकी आज्ञामें ठहराना अप्रामाणिक है।
[बोल २८ वां समाप्त
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार पृष्ठ ३३ के ऊपर लिखते हैं
"वली ईहापोहमग्गणं गवेसणं करे माणस्स" ए पाठ कह्या ईहा कहिता भला अर्थ जाणवा सम्मुख थयो अपोह कहितां धर्मध्यान वीजा पक्षपात रहित मग्गणं कहिता समुचय धर्मनी आलोचना गवेसणं कहितां अधिक धर्मनी आलोचना प्रथम गुण ठाणे कही ते धर्मनी आलोचनाने अनेधर्मध्यानने आज्ञा बाहरे किम कहिए एतो प्रत्यक्ष आज्ञामांहि छै" इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) __भगवती शतक ९ उद्देशा १ के मूल पाठमें आये हुए “ईहा" 'अपोह' 'मागण' और 'गवेषण' शब्दका भ्रमविध्वंसनकारने अशुद्ध अर्थ किया है । टीकानुसार इन शब्दों का अर्थ यह है "इहेहा सदर्थाभिमुखा ज्ञानचेष्टा, अपोहस्तु विपक्षनिराशः, मार्गणञ्चान्वय धर्मालोचनम्, गवेषणञ्च व्यतिरेक धर्मालोचनम,"
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