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सद्धर्ममण्डनम् । अर्थात् वस्तुस्वरूपको जाननेकी चेष्टा करनेका नाम “ईहा" है । और उस चेष्टाके वाधक कारणोंको हटा देना 'अपोह' है। और अन्वयधर्म (सजातीय धर्म ) की आलोचना करनेका नाम 'मार्गण' है तथा व्यतिरेक धर्म (विजातीय धर्म ) की आलोचना करना, 'गवेषण कहलाता है। यह उक्त टीकाका अर्थ है।
____ इस टीकामें 'मार्गण' शब्दका सजातीय धर्मकी आलोचना करना, और 'गवे. षण' शब्दका विजातीय धर्मकी आलोचना करना अर्थ बतलाया है वीतराग भाषित श्रुत
और चारित्र रूप धर्मकी आलोचना करना अर्थ नहीं कहा है इसलिये मार्गण शब्दका वीतराग भाषित धर्मकी आलोचना और गवेषण शब्दका अधिक धर्मकी आलोचना अर्थ बतलाना एकान्त मिथ्या है। भ्रमविध्वंसनकारने जो भगवती शतक ९ उद्देशा १ के उक्त मूलपाठके नीचे टव्वा अर्थ लिखा है वह भी टीका विरुद्ध होनेसे अप्रामाणिक है।
(बोल २९ वां ) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३४ पर लिखते हैं कि "इहां कह्यो आर्तरुद्रध्यान वर्ग और धर्मशुक्ल ध्यान ध्यावे ए शुक्ल लेश्याना लक्षण कह्या । ते शुक्ल ध्यान तो ऊपर ले गुण ठाणे पावे छै अने प्रथम गुण ठाणे शुक्ल लेश्यावर्ते ते वेलां आर्त रुद्र ध्यान तो वो छै अने धर्म ध्यान पावे छै। (भ्रमविध्वंसन पृ० ३४) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
प्रथम गुण स्थानके स्वामी मिथ्यादृष्टि पुरुषोंमें शुक्ललेश्या तो पाई जाती है परंतु वीतराग भाषित धर्म ध्यान नहीं पाया जाता। वीतराग भाषित धर्म ध्यान, श्रुत धर्म और चारित्र धर्मके होने पर ही होता है। मिथ्यादृष्टिमें श्रुत चारित्र धर्म नहीं होता अतः उसमें वीतरागभाषित धर्म ध्यान भी नहीं होता। ठाणाङ्ग सूत्रके मूलपाठमें चार ध्यानों का वर्णन किया है वहां टीकाकारने श्रुत और चारित्र धर्म वालेको ही धर्मध्यान होना बतलाया है मिथ्यादृष्टिको नहीं वह टीका मूलपाठके साथ लिखी जाती है।
"चत्तारि झाणा पण्णत्ता-अ झाणे रोद्द झाणे धम्मे झाणे सुक्के झाणे"
(ठाणाङ्ग ठाणा ४) इसकी टीका यह है"तत्र ऋतं दुःख तस्य निमित्तं तत्रवा भवम् ऋते पीडिते भव मार्तध्यानं हढोऽध्यवसायः। हिंसाधति क्रौर्यानुगतं रुद्रम् । श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्यम् । शोधयत्यष्ट प्रकारं कर्ममलं शुचंवाक्लमयतीति शुक्लम्"
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