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मिथ्वात्विक्रियाधिकारः।
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___ अर्थात् जो ध्यान, दुःखका कारण अथवा दुःख होने पर होता है वह "आत - ध्यान कहलाता है। और जो हिंसा आदि अतिक्रूरताके साथ होता है उसे "रुद्र ध्यान" कहते हैं। तथा जो ध्यान श्रुत और चारित्र रूप धर्मके साथ होता है उसे "धम्मध्यान" कहते हैं । एवं जो आठ प्रकारके कर्ममलोंको दूर करता हैं या झोकको हटाता है उसे “शुक्लध्यान" कहते हैं।
___ यहां टीकाकारने स्पष्ट कहा है कि जो ध्यान श्रुत और चारित्रधमके साथ होता है वही धर्म ध्यान है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टि पुरुषमें धम्मै ध्यान नहीं होता क्योंकि उसमें श्रुत और चारित्र धर्मका सर्वथा अभाव है। अतः प्रथम गुण स्थानमें धर्म ध्यानका सद्भाव बतलाना शास्त्रविरुद्ध है।
इसी जगह धर्मध्यान करने वाले पुरुषका लक्षण बतलानेके लिए ठाणाङ्ग सूत्रमें यह पाठ आया है
धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता तंजहा-आणारूइ णिसग्गरूइ सुत्तरुइ ओगाढाइ"
(ठाणाङ्ग) इसकी टीका यह है
"आणारुइ" त्ति आज्ञासूत्रव्याख्यानं नियुक्त्यादि तत्र तयावा रूचिः श्रद्धानम् आज्ञा रुचिः एवमन्यत्रापि, नवरं निसर्गः स्वभावोऽनुपदेश स्तेन, तथा सूत्रम् आगमः तत्र तस्माद्वा तथा अवगाहन मवगाढं द्वादशाङ्गावगाहो विस्तराधिगम इति संभाव्यते तेन रुचिः अथवा 'ओगाढ' त्ति साधु प्रत्यासन्नीभूतस्तस्य साधूपदेशा द्रु चिः उक्तञ्च-"आगम उव एसेणं निसग्गाओ जं जिगप्पणीयाणं भावाणं सद्दहणं धम्मज्झागस्स तं लिंग” तत्त्वार्थ श्रद्धान रूपं धर्मस्य लिङ्गमिति हृदयम्"
इस टीकाका यह अर्थ है—वीतराग भाषित सूत्रोंके व्याख्यानस्वरूप नियुक्ति आदिको आज्ञा कहते हैं (१) उसमें रुचि रखना, या उसके अध्ययन करनेसे धर्ममें रुचि उत्पन्न होना, (२) स्वभावसे ही वीतराग भाषित धर्ममे रुचि होना, (३) वीतराग भाषित सूत्रोंमें रुचि होना या उनके पढनेसे धर्ममें रुचि होना, (४) द्वादशाङ्गमें प्रवेश होने से रुचि होना, या निकटवर्ती साधुके उपदेशसे धर्ममें रुचि होना, ये चार धर्मध्यानके लक्षण हैं। किसी आचार्यने भी कहा है आगमके उपदेशसे अथवा स्वभावसे जिन भाषित धर्ममें श्रद्धा रखना धर्मध्यानी पुरुषका लक्षण है। तात्पर्य यह है कि तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यक्त्व, धर्मध्यानका लक्षण है।
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