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सद्धममण्डनम्।
हैं इसलिए सम्यक् श्रद्धा न होनेपर भी मिथ्यादृष्टि जीव, गुणस्थानमें गिना जाता है। जिसमें कर्मकी विशुद्धि सबसे निकृष्ट है वह पुरुष प्रथम गुण स्थानका स्वामी है और ज्यों ज्यों कर्मोकी विशुद्धि होती जाती है त्यों त्यों जीव उन्नति करता हुआ ऊपरके गुण स्थानोंका स्वामी होता जाता है। मिथ्यादृष्टि पुरुषमें जो मिथ्यादर्शन और मिथ्या ज्ञान
है वह कर्मकी विशुद्धिमें है उसीको लेकर वह प्रथम गुणस्थानमें गिना गया है किसी । सम्यक् श्रद्धाको लेकर नहीं। अतः मिथ्यादृष्टिमें झूठ ही सम्यक् श्रद्धाका सद्भाव बतला
कर उसके सबबसे उसे प्रथम गुणस्थानमें कायम करना अज्ञान मूलक है। . समवायांग सूत्रके मूल पाठमें कर्म विशुद्धिके उत्कर्ष और अपकर्षका विचार कर के चौदह गुणस्थान बतलाए हैं सम्यक् श्रद्धाको लेकर नहीं । वह पाठ यह है.. . कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीव ठाणा पण्णत्ता तंजहा-मिच्छदिट्ठो, सासायणसम्मदिट्ठी, सम्ममिच्छदिट्ठी, अविरत सम्मदिट्ठी, विरयाविरए, पमत्तसंजए, अपमत्तसंजए, नियहिवायरे, अनियहिवायरे, सुहुमसंपराए, (उपममएवा खवएवा) अवसन्त मोहे, खीण मोहे, सयोगी केवली अयोगी केवली"
(समवायांग सूत्र सू०४) अर्थात् कर्मकी विशुद्धिकी गवेषणा यानी उत्कर्ष और अपकर्णका विचार करके चौदह प्रकार के जीपोंके स्थान ( भेद) कहे हैं।
वे ये हैं-(१) मिथ्यावृष्टि, (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि, (३) सम्य मिथ्यादृष्टि, (४) अविरत सम्यग्दृष्टि, (१) घिरताविरत, (६) प्रमत्त संयत, (७) अप्रमत्त सयत, (८) निवृत्तिवादर, (९) अनिवृत्तिवादर, (१०) सूक्ष्म संपराय (यह उपशमक और क्षपक दो तरहका होता १)(११) उपशान्त मोह, (१२) क्षीण मोह (१३) सयोगी केवली (१४) अयोगी केवली।
___ यहां समवायाङ्ग सूत्रके मूलपाठमें कर्म विशुद्धिके उत्कर्षापकर्षके विचारसे गुणस्थानोंका कहा जाना बतलाया है सम्यक् श्रद्धाको लेकर नहीं। इसलिए सम्यक् श्रद्धाको लेकर गुण स्थानोंका कथन बतलाना मिथ्या है। यहां जो कर्मकी विशुद्धि कही गयी है यह कर्मों का क्षयोपशम रूप है मिथ्यादृष्टि पुरुषका जो मिथ्यादर्शन और मिथ्या ज्ञान है वह क्षयोपशम भावमें है इस लिये मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानको लेकर मिथ्यादृष्टि पुरुष प्रथम गुणस्थानमें कहा गया है। मिथ्यादर्शनका क्षयोपशमभावमें होना अनुयोग द्वार सूत्रमें कहा है। वह पाठ यह है.. "खओवसमिआ मइअण्णाणलद्धी, खओवसमिआ सपअण्णाणलद्धी, खओवसमिआ विभंगअण्णाणलद्धी, खओवस
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