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मिथ्यात्विक्रियाधिकारः।
इसका क्या उत्तर(प्ररूपक)
प्रथमगुण स्थानवाले मिथ्यादृष्टियोंमें जीवादि पदार्थों की एक भी शुद्ध श्रद्धा नहीं होती उनके सारे ही श्रद्धान विपरीत होते हैं । इसी लिए पहले गुणस्थानका नाम "मिथ्या दृष्टि गुणस्थान" रक्खा है। जिसमें मिथ्यादृष्टि यानी मिथ्यादर्शनरूपगुणकी स्थिति है वह प्रथम गुणस्थानका स्वामी है।
यदि कोई कहे कि मिथ्यादृष्टियोंमें कई पदार्थों की श्रद्धा सम्यक् होती है उस . सम्यक् श्रद्धारूप गुणका भाजन होनेसे वे प्रथम गुण स्थानके स्वामी हैं। जैसे कि मिथ्यादृष्टि गायको गाय मनुष्यको मनुष्य, सोनाको सोना श्रद्धते हैं इनकी ये श्रद्धाएं सम्यक् हैं तो यह मिथ्या है मिथ्यादृष्टियोंके सभी ज्ञानोंमें कारण विपर्याय स्वरूप विपय्यय और सम्बन्ध विपय्यय बने रहते हैं इनके बने रहनेसे उनका सभी पदार्थों का ज्ञान विपरीत ही होता है सम्यक् नहीं होता। उक्त तीन विपर्ययोंका स्वरूप यह है
जिस पदार्थका जो कारण नहीं है उसका वह कारण जानना "कारण विपर्यय" कहलाता है। जैसे घटपटादि रूपी पदार्थ रूपवान् पुद्गलोंसे बने हैं तथापि कई एक उन्हें अमूर्त द्रव्यसे बना हुआ बतलाते हैं उनका घटपटादि ज्ञान कारण विपर्यय होनेसे अज्ञान है यद्यपि वे घटपटको घटपट कह कर ही बतलाते हैं तथापि उनका घटापटादि ज्ञान पूर्वोक्त प्रकारसे अज्ञान है।
जिस वस्तुका जैसा स्वरूप नहीं है उसका वैसा स्वरूप मानना "स्वरूप पिपर्याय" कह लाता है। जैसे घटपटादि पदार्थ कथंचिन्नित्य और अनित्य हैं तथापि उन्हें कईएक एकान्त नित्य और कई एकान्त अनित्य बतलाते हैं उनका घटपटादि ज्ञान स्वरूप विपयेयके कारण अज्ञान है। कारण और काय्यका परस्पर जो सम्बन्ध है उसे न मानकर उससे विपरीत सम्बन्ध समझना “सम्बन्ध विपर्याय" कहलाता है जैसे घट और उसके कारणका कथंचित् भेदाभेद सम्बन्ध है उसे न मानकर कई इनमें एकान्त भेद और कई एकान्त अभेद सम्बन्ध मानते हैं इसलिए उनका घटादिज्ञान, सम्बन्ध विपर्ययके कारण अज्ञान है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टियोंका ज्ञान, कारण विपर्याय, स्वरूप विपर्याय और सम्बन्ध विपर्याय रूप मिथ्यात्वसे युक्त होनेके कारण अज्ञान है सम्यग्ज्ञान नहीं है। अतः मिथ्यादृष्टिके घटपटादि ज्ञानको सम्यक् श्रद्धारूप बतलाना एकान्त मिथ्या है। ....
__ अब प्रश्न यह होता है कि मिथ्यादृष्टिमें थोड़ी भी सम्यक् श्रद्धा नहीं है तो वह गुण स्थानमें कैसे गिना गया है ? तो इसका उत्तर यह है कि सम्यक् श्रद्धाको लेकर चतुईश गुणस्थान नहीं कहे हैं किन्तु कर्म विशुद्धिका उत्कर्ष और अपकर्षको लेकर कहे गये
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