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मिथ्यात्वक्रियाधिकारः ।
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मिआ चक्खुदंसणलद्धो, खओवसमिआ अचक्खुदंसणलद्धी ओहिदंसणलद्धी, एवं सम्मदंसणलद्धी, मिच्छादंसणलद्धो, सम्ममिच्छादंसणलद्धी, एवं पण्डियवोरियल द्धी, वालपण्डिय वीरियलद्धी खओवसमिआ सोइन्दियलद्धी, जाव खओवसमिआ पासेन्दिय लद्धी ”
(अनुयोग द्वार सूत्र )
इसका अर्थ यह है
मति अज्ञानलब्धि, श्रुतअज्ञानलब्धि, विभङ्ग अज्ञान लब्धि, चक्षुर्दर्शन लब्धि, भचक्षुदर्शन लब्धि, अवधिदर्शन लब्धि, सम्यग्दर्शन लब्धि, मिथ्यादर्शन लब्धि, सम्यङ् मिथ्यादर्शन लब्ध, पण्डित वो लब्धि, बालवीर्य्य लब्धि, बाल पण्डित वीर्य्य लब्धि, श्रोत्र न्द्रिय सन्धि, यावत् स्पर्शेन्द्रिय लब्धि, ये सब अपने अपने आवरण कर्मों के क्षयोपशम होनेसे उत्पन्न होती हैं अतः ये क्षायोपशमिक कहलाती हैं।
यहां मिथ्यादर्शन लब्धि, और मतिअज्ञानादिकको क्षयोपशमसे उत्पन्न होना कहा. है । इसलिये मिथ्यादृष्टि पुरुषका मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान क्षयोपशमिक भावमें हैं उन लेकर वह प्रथम गुण स्थानमें गिना जाता है किसी सम्यक् श्रद्धाको लेकर नहीं ।
यदि कोई कहे कि मिथ्यादर्शन लब्धि क्षयोपशमसे उत्पन्न होती है तो इसे वीतरागकी आज्ञामें क्यों नहीं मानते ? तो इसका समाधान यह है कि क्षयोपशमसे उत्पन्न होने मात्र से कोई पदार्थ वीतरागकी आज्ञामें नहीं हो जाता। क्योंकि मति आज्ञान लब्धि
त अज्ञान लब्धि, और विभङ्ग अज्ञान लब्धि क्षयोपशमसे ही उत्पन्न होती हैं तथापि, त्यागने योग्य होनेसे ये वीतरागकी आज्ञामें नहीं हैं उसी तरह मिथ्यादर्शन लब्धि भी त्यागने योग्य होने से वीतरागकी आज्ञामें नहीं है ।
मति अज्ञानादिक और मिथ्यादर्शन त्यागने योग्य है यह आवश्यक सूत्रमें कहा है। वह पाठ यह है
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" मिच्छत्तं परियाणामि सभ्मत्त उवसंप्पवज्जामि, अन्नार्ण परियाणामि नाणं उवस पवज्जामि "
अर्थात् साधु प्रतिज्ञा करता है कि मैं मिथ्यात्व और अज्ञानको छोड़ कर सम्यक्त्व और और ज्ञानका आश्रय लेता हूं ।
इस पाठ में मिथ्यात्व और अज्ञानको त्यागने योग्य कहा है अतः जैसे अज्ञान, क्षायोपशमिक भाव में होने पर भी आज्ञामें नहीं है उसी तरह मिथ्यादर्शन भी त्यागने योग्य होनेके कारण आज्ञामें नहीं है ।
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