________________
मिथ्यात्विक्रियाधिकारः ।
सोलहवें अंशमें न होना बतलाया है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि यहां जिन भाक्ति धर्मका और जो धर्म जिन भाषित नहीं है उसका भेद बतलाया गया है, संवर और निर्जरा का विचार यहां नहीं किया है। अतः इस गाथासे मिथ्यादृष्टिकी तपस्या बीतरागसे नहीं कही हुई स्पष्ट सिद्ध होती है तथापि उसे आज्ञामें कायम करके मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको मोक्षमार्गका आराधक बतलाना सूत्रार्थ नहीं समझनेका परिणाम है।
__ (बोल २३ वां समाप्त) (प्रेरक)
___ भ्रमविध्वंसकार भ्र० पृ० पृष्ठ१८ के ऊपरसुयगडांग सूत्रकी गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि-"इहां सूत्रमें तो कह्यो जे मासने छाडे भोगवे पिण माया करे ते मायाथी अनन्त संसार भमे एतो मायाना फल कसा छै। पिण तपने खोटो कयो नथी इहां तो तपने अपूठो विशिष्ट कयो "आगे चलकर लिखते हैं कि “तिवारे कोई कहे ए आज्ञा माहिली करणी छै तो मोक्ष क्यं वर्जी तेहनो उत्तर-एहनो श्रद्धा ऊंथी ते मांटे मोक्ष नथी परं मोक्षनो मार्ग वज्यों नथी जे अव्रती सम्यग्दृष्टि शान सहित छै तेहने पिण चारित्र विन मोक्ष नथी परं मोक्षनो मार्ग कहिए” (भ्र० पृष्ठ १८)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) - सुयगडांग सूत्रकी वह गाथा लिखकर इसका समाधान किया जाता है। वह गाथा यह है
"जइ विय णिगणे किसे घरे जइषिय भुञ्जिय मासमन्तसो जे इह मायाइमिजह आगन्ता गम्भाय गन्तसो"
(सुयगडांग श्रु. १ अ०.२ उ० १ गाथा ९) अर्थ
(जे इह मायाइ मिजइ ) जो पुरुष माया यानी अनन्तानुबन्धी कषायोंसे युक्त मिथ्यादृष्टिहै वह घरवार आदि सब प्रकारके वाह्य परिग्रहोंको छोड़ कर नगा और कृश होकर विचरे तथा मास-मास पर्यन्त उपवास करता हआ उसके अम्समें पारणा करे तो भी वह अनासकाल तक गर्भ में ही जाता है। अर्थात् उसका संसार घटता नहीं।
इस गाथामें कहा है कि मिथ्यादृष्टि अज्ञानी पुरुष घर वार छोड़ कर नना और कृश होकर विवरे और मास-मासकी तपस्या करके उसके अन्तमें पारणा करे तो भी वह : अनन्त कालतक गर्भवासको ही प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टि अज्ञानीकी तपस्या वीतरागकी आज्ञामें नहीं है। यदि वह आशामें होती तो उस
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com