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सद्धर्ममण्डनम् ।
आराधना करता है पर विशेषरूपसे ज्ञानवान् नहीं है। जैसे कोई धनवान् यदि धनकी प्राप्ति के लिये विशेष प्रयत्न नहीं करता तो उसे दरिद्र नहीं कह सकते, वैसे ही यदि कोई पुरुष ज्ञान प्राप्ति के लिये विशेष प्रयत्न ( आराधना ) नहीं करता तो उसे अज्ञानी नहीं कह सकते | अतः उक्त भगवतीकी चौभङ्गीके पहले भङ्गका स्पष्ट अर्थ इस प्रकार है— (१) देशाराधक - जो चारित्रकी आराधना करता है पर विशेषरूपसे ज्ञानवान् नहीं है।
ऐसा मानना ही शास्त्र के अनुकूल है इससे विरुद्ध अर्थ करनेसे "अविण्णायधम्मे” इस पाठमें दिया हुआ “वि” उपसर्ग निरर्थक ठहरता है और उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथा से भी विरोध होता है । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्रमें यह गाथा कही है-
"नादंसणिस्स नाणं नाणेण विना न होंति चरणगुणा"
अर्थात् मिथ्यादृष्टिको ज्ञान नहीं होता और विना ज्ञानके चारित्र तथा गुण ( पिण्ड विशुद्धि आदि) नहीं होते । यह उक्त गाथाका अर्थ है ।
इसमें ज्ञानके विना चारित्रका न होना स्पष्ट कहा है इस लिये भगवती सूत्रोक्त प्रथम भङ्गके स्वामी चारित्री पुरुषको अज्ञानी मानना इस गाथासे भी विरुद्ध होता है अतः भग
सूत्रोक्त प्रथम भङ्गके स्वामीको अज्ञानी मिथ्यादृष्टि कायम करना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये । सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्रकी आराधनासे भिन्न कोई मोक्ष मार्गकी आराधना नहीं कही है और उक्त आराधना जिसमें नहीं है उसको आराधक भी नहीं कहा है ऐसी दशामें संवर रहित निर्जराकी करनीसे कोई मोक्ष मार्गका आराधन करने वाला कैसे हो सकता है ? यह पाठकोंको स्वयं सोच लेना चाहिये। अतएव इस चतुर्भुङ्गी में आराधक विराधकोंका चारभङ्ग बतला कर आराधनाका भेद बतलाते हुए आगे मूलपाठ तीन हीं आराधना कही हैं पर चौथी निर्जरा आदिकी आराधना नहीं बतलाई है। वह पाठ
“कतिविहाणं भन्ते ! आराहणा पण्णत्ता गोयमा ! तिविहा आराहणा पण्णत्ता तंजहा - णाणाराहणा दंसणाराहणा चारित्ताराहणा" ( भगवती शतक ८ उ०१० )
अर्थ - हे भगवन् ! आराधना कितनी होती हैं ? (उत्तर) हे गोतम ! आराधना तीन प्रकारकी होती है ज्ञानकी आराधना दर्शनकी आराair और चारित्रकी आराधना ।
यहां मूल पाठ ज्ञान दर्शन और चारित्र इन तीनकी ही आराधना कही हैं पर निर्जराकी करनी आदिकी आराधना वीतरागकी आज्ञामें नहीं कही है। अतः संवर रहित
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