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सद्धर्ममण्डनम् ।
अने ए बालतपस्वीने व्रत नहीं पिण निर्जरारेलेखे देशाराधक कह्या छै ।" इस विषय में भ्रम विध्वंसनकारने भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशा १० का मूलपाठ प्रमाण दिया है और उक्त मूल पाठकी चतुर्भङ्गी के प्रथम भङ्गमें मिथ्यादृष्टिको कहा जाना बतलाया है । इसका समाधान क्या है ?
(प्ररूपक)
भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशा १० में कही हुई चतुर्भङ्गीके पहले भङ्गका स्वामी प्रथम गुणस्थान वाला मिथ्यादृष्टि पुरुष नहीं है क्योंकि मिथ्यादृष्टिमें सम्यग् ज्ञान दर्शन तथा चारित्र इनमेंसे एक भी नहीं होता तथापि संवररहित निर्जराकी करनीको मोक्ष मार्ग में मान कर उस करनीकी अपेक्षासे मिथ्यादृष्टिको भ्रमविध्वंसनकार मोक्ष मार्ग का देशाधक कहते हैं लेकिन यह बात शास्त्र संमत नहीं है । भगवती सूत्रके इस पाठ तथा इसकी टीकामें संवर रहित निर्जराकी करनीको मोक्षमार्गकी देशाराधना में नहीं कहा है और उस करनी को लेकर यह आराधक विराधककी चतुर्भङ्गी भी नहीं कही है किन्तु श्रुत और शीलको लेकर कही है। श्रुत नाम ज्ञान और दर्शनका तथा 'शील' नाम चारित्रका है। इसलिये जिसमें श्रुत और शील इनमेंसे एक भी नहीं है वह पुरुष मोक्ष मार्गका देशाधक कैसे हो सकता है ? अतः मिथ्यादृष्टि अज्ञानी मोक्षमार्गका देशाराधक नहीं है क्योंकि उसमें श्रुत तथा शील ( चारित्र ) इनमें से एक भी नहीं होता ।
संवर रहित निर्जराको मोक्षमार्ग में मानकर उसके होने से यदि मिथ्यादृष्टि का इस चतुर्भङ्गीके प्रथम भङ्गमें माना जाय और मिथ्यादृष्टिको भी देशाराधक कहा जाय तो यह आराधक विराधक की चतुर्भङ्गी नहीं बन सकती क्योंकि जो पुरुष मोक्ष मार्गकी किंचित् भी आराधना नहीं करता वह चतुर्थभङ्गका स्वामी सर्वविराधक कहा गया है परन्तु संवररहित निर्जरा उसमें भी होती है अतः निर्जराके होनेसे मोक्षमार्गका देशाराधक मानने पर यह पुरुष भी देसाराधक ही ठहरता है सर्व विराधक नहीं । क्योंकि संवर रहित निर्जरा एकेन्द्रियादिक चौवीस ही दण्डकके जीवोंमें होती है इसलिये ( संवर रहित निर्जराको मोक्षमार्ग आराधनमें मानने पर ) सभी मिध्यादृष्टि आराधक ही ठहरते हैं पर कोई भी सर्वविराधक नहीं होता। इस प्रकार इस चतुर्भङ्गीका चौथा भङ्ग खाली रह जाता है पर यह इष्ट नहीं है इसका भी स्वामी होता है। अतः संवर रहित निज् गको मोक्षमार्ग आराधनमें मानना शास्त्रविरुद्ध समझना चाहिये ।
जब कि संवर रहित निर्जरा मोक्षमार्गमें नहीं मानी जाती और उस निजराके होते हुए भी आराधक नहीं माना जाता तब उक्त चतुर्भङ्गीका चौथा भङ्ग खाली नहीं रहता क्योंकि जो पुरुष श्रुत, तथा शील ( चारित्र) इन दोनोंसे नथा रहित है वह भगवती
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