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मिथ्यात्विक्रियाधिकारः।
(प्ररूपक)
दौलतरामजीके साथ दलपतिरायजीके जो प्रश्नोत्तर हुए हैं उसकी सम्बत् १८९१ की लिखी हुई प्रति मेरे पास मौजूद है उसमें हाथी और सुमुखगाथापतिका प्रथम गुण स्थानमें होना कहीं नहीं कहा है अतः उक्त प्रश्नोत्तरीका उदाहरण देकर हाथी और सुमुखगाथापतिको मिथ्यादृष्टि कायम करना मिथ्या है। तथा भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १० के नोटमें दौलतराम जी और दलपतिरायजीको "कोटा बूदीके आसपास विचरनेवाले वाईस सम्प्रदायके साधु" लिखा है यह भी मिथ्या है । दलपतिरायजी देहलीके रहने वाले वाईस सम्प्रदायके प्रसिद्ध श्रावक थे साधु नहीं थे तथा इनके प्रश्नोत्तरमें हाथी तथा सुमुखगाथापतिको मिथ्यात्वी होनेका कथन भी नहीं है अत: उक्त प्रश्नोत्तरीका दाखला देकर जो नोटके अन्दर लिखा है कि "उक्त प्रश्नोत्तरीके १३८ वें प्रश्नके उत्तरमें हाथीको और सुमुखगाथापतिको मिथ्यादृष्टि कहा है" यह सब मिथ्या समझना चाहिए।
तेरह पन्थियोंको इस प्रश्नोत्तरीकी बात यदि मान्य हो तो इसके ५८ वे प्रश्नके उत्तरमें मिथ्यात्वीके अन्दर मोक्षप्राप्तिरूप सकाम निर्जराका प्रतिषेध किया है इस लिये मिथ्यादृष्टिको मोक्षमार्गका देशाराधक नहीं मानना चाहिये । वह ५८ वां प्रश्न और उस का उत्तर निम्नलिखित हैं
' “मिथ्यात्वीनो सकाम निर्जरा हो वा न हो, तेहनो उत्तर-मोक्ष प्राप्ति सकाम निर्जरा न होवे" इस प्रश्नोत्तरमें मिथ्यादृष्टिमें मोक्षमार्गका न होना स्पष्ट कहा है तथापि इसी प्रश्नोत्तरीका उदाहरण देकर जीतमलजीने मिथ्यादृष्टिको मोक्षमार्गका आराधक बतलाया है, यह इनका प्रत्यक्ष मिथ्याभाषण समझना चाहिये ।
___ यहां विशेष ध्यानमें रखने योग्य बात यह है कि किसी भी आधुनिक छद्मस्थ अल्पज्ञकी बात शास्त्राधारके विना नहीं मानी जाती यह आग्रह तो भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायियोंका ही है जो वावा वाक्यको प्रमाण मान कर लकीरके फकीर बने हैं। उनके भीषणजी आदिकी बात यदि सूत्रके मूलपाठसे भी विरुद्ध हो तो भी उसे वे नहीं छोड़ते यही तो आभिनिवेशिक मिथ्यात्वका लक्षण है। परन्तु सम्यग्दृष्टि पुरुष सूत्रप्रमाणको समझ कर हठ नहीं करते । चाहे किसीका कथन हो सूत्र विरुद्ध बात वे नहीं मानते।
[बोल १७ वां समाप्त] (प्रेरक)
सुमुखगाथापतिने सुदत्त अनगारको जैसे वन्दन नमस्कार किया था उसी तरह गोशालक शिष्य शकडाल पुत्रने भी भगवान महावीर स्वामीको वन्दन नमस्कार किया था यदि मुनिको वन्दन नमस्कार करना ही सम्यग्दृष्टिका लक्षण है तो फिर गोशालक
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