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सद्धर्ममण्डनम् ।
शिष्य शकडाल पुत्रको भी सम्यग्दृष्टि ही मान लेना चाहिये । परन्तु यदि उसे आप सम्यग्दृष्टि नहीं मानते तो फिर सुमुखगाथापतिको सम्यग्दृष्टि क्यों मानते हैं ?
( प्ररूपक )
सुमुखगाथापति वन्दन नमस्कारको गोशालक शिष्य शकडाल पुत्रके वन्दन नमस्कार जैसा बतलाना अयुक्त है सुमुखगाथापतिने विना किसीकी प्रेरणा और दबाव
अपनी हार्दिक इच्छा और श्रद्धाभक्तिसे सुदत्त अनगारको वन्दन नमस्कार किये थे परन्तु शकाल पुत्र देवताके कहने, और उसके दबावसे भगवानको वन्दन नमस्कार किया था । इसलिये इन दोनोंके वन्दन नमस्कार तुल्य नहीं हैं ।
जैसे कोई मनुष्य अपनी स्वाभाविक इच्छासे साधुका आचार पालता है और दूसरा अभव्य होकर भी सांसारिक पूजा प्रतिष्ठा आदिके लोभसे साधुका आचार पालता है ये दोनों पुरुष व्यवहार दशामें यद्यपि साधुका आचार पालने वाले ही कहे जाते हैं तथापि इनके आचारपालनमें तुल्यता नहीं है किन्तु महान भेद है उसी तरह जो अपनी मानसिक इच्छा और श्रद्धाभक्ति से मुनिको वन्दन नमस्कार करता है और जो किसीकी प्रेरणा या दबावसे बन्दन नमस्कार करता है इन दोनोंके वन्दन नमस्कारमें भी तुल्यता नहीं है महान् अन्तर है । सुमुखगाथापतिने अपनी इच्छा और स्वाभाविक श्रद्धा सेमुनिको वन्दन नमस्कार आदि किये थे इसलिये उसका वन्दन नमस्कार सम्यग्दृष्टिका वन्दन नमस्कार है और वह मोक्षका मार्ग है परन्तु शकडाल पुत्रने देवताके कहने से वन्दन नमस्कार किये थे इसलिये उसका वन्दन नमस्कार आन्तरिक भक्तिशून्य द्रव्यरूप होनेसे मिथ्यादृष्टिका वन्दन नमस्कार है वह मोक्षका मार्ग नहीं है । अत: इन दोनोंको तुल्य बतलाना मिथ्या है | शकडाल पुत्रने देवताके कहने से भगवान् महावीरस्वामीको वन्दन नमस्कार किया था अपनी इच्छासे नहीं यह बात उपासक दशांग सूत्रके मूलपाठ में कही है । वह पाठ यह है
" समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीवियोवासयं एवं वयासी से नूनं सद्दाल पुत्ता ! कल्लं तुमं पुच्वावरण्हाल जेणेव असोगवणिया जाव विहरसि तएणं तुब्भं एगे देवे अंतियं पाउ भवित्था तरणं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने एवं वयासीह'भो सद्दाल पुत्ता ! तंचेव सब्वं जाव पज्जुषासिस्सामि सेनूनं सद्दाल पुत्ता ! अट्ठे समट्ठे ! हंता अत्थि । नो खलु सद्दाल पुत्ता ! तेणं देवेणं गोसालं मंखलि पुत्तं पणिहाय एवं वृत्ते । तएणं तस्स सद्दाल
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