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सद्धर्ममण्डनम् ।
इसका टब्वा अर्थ यह है-" तं० तेमाटे तिहां तुम्मे तीजे भवे, मे० मेघा ? यिर्य्यञ्चरी योनि भावइ मु० उपनाहता अ० अनपाम्पो अछतो सम्यक्त्व लीधो रत्नपाम्यो से० तेसिकरी तेप्राणिनी अनुकम्पाइ जा० दयाइ करी जा. यावत् तिहांपग ऊचोराख्यो तेणे मनुष्य भवपाम्यो।"
यह टव्वा अर्थ भीषणजीके जन्मसे पहलेका लिखा हुआ प्राचीन है हस्तलिखित प्रतियोंमें इसके लिखे जानेकी मिति संवत् १७६८ लिखी है
जैसे कि-"संवत् १७६८ वर्षे शा० १६६३ प्रथम कार्तिके मासे शुक्ल पक्षे ११ तिथौ भृगुवासरे लिपिंचके मुनिक: रसागरः ” यह लिखा है। इसमें “ अपडिलद्धसंमत्त रयण लभेणं " इस पदका अर्थ यह किया है कि "अनपाम्यो अछतो सम्यक्त्वलीधो रत्न पाम्यो" अर्थात् “हाथीने पहले नहीं पाये हुए सम्यक्त्व रूपी रत्नको उस समय प्राप्त किया था।" इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि वह हाथी शशक आदि प्राणियोंकी प्राणरक्षा करतेसमय सम्यग्दृष्टि था मिथ्यादृष्टि नहीं । इस टब्बा अर्थमें जो "अपडिलद्ध सम्मत्त रयणलभेणं" इस पदका सम्यक्त्व रूपी रत्नको पाना अर्थ लिखा है वह व्युत्पत्तिसे भी निकलता है। जैसे कि इस पदकी संस्कृतच्छाया "अप्रतिलब्ध सम्यक्त्व रत्न लंभेन" वनती है। और इसकी व्युत्पत्ति यह है कि "अप्रतिलब्धमप्राप्त यत्सम्यक्त्व रत्नं तल्लभत इति अप्रतिलब्ध सम्यक्त्व रत्न लभस्तेन" अर्थात् पहले कभी नहीं पाये हुए सम्यक्त्व रत्नको प्राप्त करने वाला" यह इसका अर्थ है। इस लिये टव्वाकारका किया हुआ अर्थ व्युत्पत्तिसे भी सङ्गन है तथापि हाथीको मिथ्यादृष्टि कायम करके मिथ्यात्वदशाकी क्रियासे संसारका समुच्छेद बतलाना उत्सूत्र भाषियोंका कार्य समझना चाहिये। कई अशुद्ध टब्बाओंमें उक्त पदका अर्थ अशुद्ध किया है। जैसे भ्रममविध्वंनमें उक्त पदका अशुद्ध टव्वा अर्थ लिखा है ऐसे अशुद्ध टव्वाओंका आश्रय लेकर जगतमें भ्रम फैलाना सच्चे साधुओंका कर्तव्य नहीं है। अतः भ्रमविध्वंसनकारने जो मूलपाठसे विरुद्ध हाथी को मिथ्यादष्टि बतलाया है वह मिथ्या समझना चाहिए।
बोल १६ वां (प्रेरक)
ज्ञाता सूत्रके मूलपाठमें हाथीको शशकादि प्राणियोंकी प्राणरक्षा करते समय सम्यग्दृष्टि ही लिखा है यह ज्ञात हुआ । परन्तु भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंन पृष्ठ १० के ऊपर लेखते हैं कि “वलीयांमें इज दलपतिरायजी प्रश्न पूछ या तेहना उत्तर दौलतरामजी दीधा
त प्रश्नोत्तर मध्ये पिण हाथीने तथा सुमुख गाथापतिने प्रथम गुणठाणे कह्या छै" इसका क्या समाधान ?
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